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[ पवयणसारो
टीका - ( भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य) स्वयं ही ( १४० यें ) सूत्र द्वारा कहेंगे कि आकाश के प्रदेश का लक्षण एकाणुव्याप्यत्व ( अर्थात् एक परमाणु से व्याप्त होना) है। यहां (इस सूत्र या गाथा में ) ' जिस प्रकार आकाश के प्रदेश हैं उसी प्रकार शेष द्रव्यों के प्रदेश हैं' इस प्रकार प्रदेश के लक्षण की एक प्रकारता कही जाती है। इसलिये, एकाणुव्याप्य ( जो एक परमाणु से व्याप्य हो ऐसे ) अंश के द्वारा गिने जाने पर जैसे आकाश के अनन्त अंश होने से आकाश अनन्त प्रदेशी हैं, उसी प्रकार एकाणुध्याप्य अंश के द्वारा गिने जाने पर धर्म, अधर्म और एक जीव के असंख्यात अंश होने से वे प्रत्येक असंख्यातप्रदेशी हैं । जैसे ( संकोच - विस्तार - रहित होने की अपेक्षा) अवस्थित प्रमाण वाले धर्म तथा अधर्म असंख्यात - प्रदेशी हैं, उसी प्रकार संकोच विस्तार के कारण ( संकोच - विस्तार होने की अपेक्षा) अनवस्थित प्रमाण वाले जीव के सूखे गीले चमड़े की भांति - निज अंशों का अल्पबहुत्व नहीं होता ( संख्या में प्रदेशों की हानि-वृद्धि नहीं होती ) इसलिये असंख्यातप्रदेशित्व ही है ।
( यहां यह प्रश्न होता है कि अमूर्त जीव का संकोच विस्तार कैसे संभव हैं ? उसका समाधान किया जाता है - )
अमूर्त के संकोच - विस्तार को सिद्धि तो अपने अनुभव से ही साध्य है, क्योंकि ( सबको स्वानुभव से स्पष्ट है कि) जीव स्थूल तथा कृश शरीर में तथा बालक और कुमार के शरीर में व्याप्त होता है। ( जीव के जो प्रदेश मोटे शरीर में फैले हुये थे, वे ही शरीर के पतले हो जाने पर सिकुड़ गये तथा बालक के शरीर में जो जीव के प्रवेश सिकुड़े हुये थे, वे ही कुमार अवस्था के शरीर में फैल जाते हैं । इस प्रकार से जीव के प्रदेशों का संकोच तथा विस्तार सिद्ध होता है। पुद्गल तो द्रव्य की अपेक्षा से एक प्रदेश मात्र होने से यथोक्त ( पूर्वकथित) प्रकार से अप्रदेशी है, तथापि वो प्रदेश आदि (द्वघणुक आदि) स्कंधों के हेतुभूत तथाविध ( उस प्रकार के ) स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप परिणमित होने की शक्तिरूप स्वभाव के कारण उस पुद्गल के प्रदेशों का ( बहु प्रदेशत्व का) उद्भव है । इसलिये पर्यायतः अनेक प्रदेशित्व की भी संभावना होने से पुद्गल द्विप्रदेशत्व से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशत्व भी न्याययुक्त है ॥१३७॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ यदेवाकाशस्य परमाणुव्याप्तक्षेत्रं प्रदेशलक्षणमुक्त शेषद्रव्यप्रदेशानां तदेवेति सूचयतिजहते हम्पदेसा यथा ते प्रसिद्धाः परमाणुत्र्याप्तक्षेत्रप्रमाणा काशप्रदेशाः तत्पदेसा हवं ति सेसाणं तेनैवाकाशप्रदेशप्रमाणेन प्रदेशा भवन्ति । केषां ? शुद्धबुद्धकस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृतिशेषद्रव्याणाम् । अपदेसो परमाणु अप्रदेशो द्वितीय | दिप्रदेशरहितो योसी गुद्गलपरमाणु तेण पदेसुब्भवो