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________________ १८ 1 [ पवयणसारो अन्धयार्थ-[द्रव्यम् ] द्रव्य [यत्कालम् ] जिस समय में [येन भावेन] जिस भाव से [परिणमति ] परिणमन करता है | तत्कालम् ] उस समय [तन्मम्) उस रूप है [इति] ऐसा [प्रशप्तम्] श्री जिनेन्द्रों द्वारा कहा है। [तस्मात् ] इसीलिये [धर्मपरिणतः आत्मा | धर्म परिणत आमा को [धर्मः ] धर्म [मन्तव्यः] जानना चाहिये । टीका-वास्तव में जो द्रव्य जिस समय में जिस भाव से परिणत होता है, वह द्रव्य उस समय में उसी-स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं है। जैसे-उष्णता रूप से परिणत लोहे का गोला उस स्वरूप (उष्णतामय) होता है। इस कारण धर्म रूप से पारंगत आत्मा धर्म हो है । इस प्रकार आत्मा को चारित्रता सिद्ध हुई (पर्यायदृष्टि से आत्मा का चारित्र से अभेद करके कथन किया है)। . यहाँ यह विशेषता समझना चाहिये कि पूर्व में (गाथा ७) में कहा था कि चारित्र आत्मा का भाव है। पर इस गाथा में अभेद नय से यह कहा गया है कि जैसे उष्णभाव से परिणत लोहे का गोला स्वयं उष्ण है-लोहे का गोला उष्णता से भिन्न नहीं है, वैसे ही चारित्र भाव से परिणत आत्मा भी स्वयं चारित्र है-उससे भिन्न नहीं है, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये ॥६॥ तात्पर्यवृत्तिअयाभेदनयेन धर्मपरिणत आत्मैव धर्मों भवतीत्यावेदयति-परिणम दि जेण वष्वं तककाले तम्मय त्ति पण्णत्तं परिणमति येन पर्यायेण द्रव्यं कर्तुं तत्काले तन्मयं भवतीति प्राप्तम् यत: कारणात्, तम्हा धम्मपरिणदो आवा धम्मो मुणेवग्यो तत: कारणात धर्मेण परिणत आत्मैव धमों मन्तव्य इति । तद्यथा-निजशुद्धात्मपरिणतिरूपोनिश्चयधर्मो भवति । पञ्चपरमेष्ट्ययादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्ताबदुच्यते । यतस्तेन तेन विवक्षिताविवक्षिप्तपर्यायेण परिणतं द्रव्यं तन्मयं भवति, तत: पूर्वोक्तधर्मद्वयेन परिणतस्तप्तायःपिण्डवदभेदनयेनात्मैव धर्मो भवतीति ज्ञातव्यम् । तदपि कस्मात् ? उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति वचनात् । तच्च पुनरुपादान कारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा। रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनशानमागमभाषया शुक्लथ्यानं वा केवलज्ञानोत्पत्ती शुद्धोपादानकारणं भवति । अशुद्धात्मा तु रागादीनामशुद्धनिश्चयेनाशु खोपादान कारणं भवतीति सूत्रार्थः । एवं चारित्रस्य संक्षेपसूचनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् ।। एवं चारित्रस्य संक्षेपसूचनापेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि अभेदनय से इन वीतरागभावरूपी धर्म में परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म हैं। __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(दव) द्रव्य (जेण) जिस अवस्था या भाव से (परिणमदि) परिणमन करता है या वर्तन करता है (तरकाले) उसी समय वह द्रव्य (तम्मयत्ति)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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