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________________ पवयणसारो ] [ १७ उत्थानिका— आगे निश्चयचारित्र का स्वरूप तथा उसके पर्याय नामों का अभिप्राय मन में धारण करके आगे का सूत्र कहते हैं—- इसी तरह आगे भी एक सूत्र के आगे दूसरा सूत्र कहना उचित है । ऐसा कहते रहेंगे, इस तरह की पातनिका यथासम्भव सर्वत्र जाननी चाहिये । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( चारितं ) चारित्र ( खलु) प्रगटपने (धम्मो ) धर्म है (जो धम्मो ) जो यह धर्म है ( सो समोत्ति) सो ही सम या साम्यभाव है, ऐसा (गिट्ठो) कहा गया है । (अप्पणी) आत्मा का ( मोहक्लोहविहीणा ) मोह और क्षोभ से रहित (परिणामो ) भाव है (हि) वही निश्चय करके (समो) समता भाव है । प्रयोजन यह है कि शुद्धचैतन्य के स्वरूप में आचरण करना चारित्र है । यही चारित्र मिथ्यात्व रागद्वेषादि द्वारा संसरणरूप जो भाव संसार उसमें पड़ते हुए प्राणी का उद्धार करके विकार रहित शुद्ध चैतन्यभाव में धारण करने वाला है, इससे यह चारित्र ही धर्म है । यही धर्म अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न जो सुखरूपो अमृत उस रूप शीतल जल के द्वारा काम क्रोध आदि अग्नि से उत्पन्न संसार के दुःखों की वाह को उपशम करने वाला है, इससे यही शम, शांतभाव या साम्यभाव है। मोह और क्षोभ के ध्वंस करने के कारण से वही शांतभाव मोह क्षोभ रहित शुद्ध आत्मा का परिणाम कहा जाता है। शुद्ध आत्मा के श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन को नाश करने वाला जो दर्शनमोहनीयकर्म है, उसे मोह कहते हैं। तथा निविकार निश्चल चित्त के वर्तनरूप चारित्र को नाश करने वाला है, वह चारित्र मोहनीयकर्म या क्षोभ कहलाता है । अयात्मनश्चारित्रत्वं निश्चिनोति - परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं । धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो' ||८|| तम्हा नश्चरित्रत्वम् ||८|| परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयमिति प्रज्ञप्तम् । तस्माद्धर्मपरिणत आत्मा धर्मो मन्तव्यः ||८|| यत्खलु द्रव्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलोष्ण्यपरिण तायः पिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवतीति सिद्धमत्मा भूमिका – अब, आत्मा चारित्ररूप का निश्चय करते हैं १. तक्काले ( ० वृ०)। २. मुणेदव्वो (अ० वृ० ) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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