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[ पवयणसारो है, क्योंकि चैतना तन्मय (ज्ञानमय, कर्ममय अथवा फर्मफलमय) होती है । इसलिये ज्ञान, कर्म और कर्मफल आत्मा ही है। इसी प्रकार वास्तव में शुद्ध द्रव्य के निरूपण में, पर द्रव्य के सम्पर्क (सम्बन्ध) का असम्भव होने से और पर्यायों का द्रव्य के भीतर प्रलोन (लोप) हो जाने से, आत्मा शुद्ध द्रव्य ही रहता है ॥१२५॥
तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानकर्मकर्मफयान्यभेदनयेनात्मैव भवतीति प्रज्ञापयति
अप्पा परिणामप्पा आत्मा भवति ? कथम्भुतः ? परिणामात्मा परिणामस्वभावः । कस्मादिति चेत् ? "परिणामो सयमादा" इति पूर्व स्वयमेव भणितत्वात् । परिणाम: कथ्यते परिणामो णाणकम्मफलभावी परिणामो भवति । किविशिष्ट: ? ज्ञानकम्मकर्मफलभावी ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण भवितं शील इत्यर्थः तम्हा तस्मादेवं तस्मात्कारणात् णाणं पूर्वसूत्रोक्ता ज्ञानचेतना कम्मं तत्रैवोक्तलक्षणा कर्मचेतना फलं च पूर्वोक्तलक्षण कर्म फलनेतना च । आदा मुणेदव्यो इयं चेतना त्रिविधायभेदनयेनात्मौव मन्तव्यो ज्ञातव्य इति । एतावता किमक्तं भवति । त्रिविधचेतनापरिणामेन परिणामी सन्नात्मा। कि करोति ? निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धपरिणामेन मोक्षं साधयति, शुभाशुभाभ्यां पुनर्बन्धमपि ॥१२५||
एवं त्रिविधचेतनाकथनमुख्यतया गाथात्रयेण चतुर्थस्थलम् गतम् ।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि यह आत्मा ही अभेदनय से ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना रूप हो जाता है ।।
अन्वय सहित विशेषार्थ--(अप्पा परिणागप्पा) आत्मा परिणाम-स्वभावी है। (परिणामो णाणकम्मफलभावी) परिणाम ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्मफल रूप हो जाता है (तम्हा) इसलिये (आदा) आत्मा (णाणं कम्मं च फलं) ज्ञानरूप कर्मरूप व कर्म-फलरूप (मुणेदवो) जानना चाहिये । आत्मा परिणमन स्वभाव है, यह बात तो पहले ही "परिणामो सयमादा" इस गाथा में कही जा चुकी है । उसो परिणमन स्वभाव में यह शक्ति है कि आत्मा का भाव ज्ञानचेतना रूप, कर्मचेतना रूप व कर्मफलचेतना रूप हो जावे । इसलिये ज्ञान, कर्म, कर्मफलचेतना इन तीन प्रकार चेतना रूप अभेवनय से आत्मा को हो जानना चाहिये । इस कथन से यह अभिप्राय प्रगट किया गया है कि यह आत्मा तीन प्रकार चेतना के परिणामों से परिणमन करता हुआ निश्चयरत्नत्रयमयी शुद्ध परिणाम से मोक्ष का साधन करता है। तथा शुभ और अशुभ परिणामों से बन्ध को साधता है।।१२५।।
इस तरह तीन प्रकार चेतना के कथन की मुख्यता से चौथा स्थल पूर्ण हुआ।