SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो ] [ ५३३ में से कोई एक वर्ण धारी हो, जिसका शरीर नीरोग हो, जो तप करने को समर्थ हो, अतिवृद्ध व अतिबाल न होकर योग्य वय सहित हो, जिसका मुख का भाग भंग दोष रहित निर्विकार हो तथा वह इस बात का बसलाने वाला हो कि इस साधु के भीतर निर्विकार परमचैतन्य परिणति शुद्ध है तथा जिसका लोक में दुराचारावि के कारण से कोई अपवाद न हो ऐसा गुणधारो पुरुष ही जिनदीक्षा ग्रहण के योग्य होता है तथा सत् शूद्र आदि भी यथायोग्य व्रतों को दीक्षा ले सकते हैं ॥२२४-१०॥ अथ निश्चयनयाभिप्रायः कथयति जो रयणतयणासो सो भंगो जिणवरेहि णिदिवट्ठो । सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणाअरिहो ॥१२४-११ जो रयणत्तयणासो सो मंगो जिणवरेहि णिहिट्ठो यो रत्नत्रयनाश: स भङ्गो जिनवरनिर्दिष्ट:। विशुद्धशानदर्शनस्वभावानजपरमात्मतत्वसम्बश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपो योऽसौ निश्चयरत्नत्रयस्वभावस्तस्य विनाशः स एव निश्चयेन नाशो भङ्गो जिनवरनिर्दिष्ट: सेसं भंगेण पुणो शेषभंगेन पुनः शेषखण्डमुण्डबातवृषणादिभंगेन ण होदि सल्लेहणाअरिहो न भवति सल्लेखनाहः लोकदुगुञ्छाभयेन निर्ग्रन्थरूपयोम्यो न भवति । कौपीनग्रहणेन तु भावनायोग्यो भवतीत्यभिप्रायः ॥११॥ __ एवं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणव्याख्यानमुख्यत्वेनैकादशगाथाभिस्तृतीयं स्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे निश्चय भय का अभिप्राय कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जो रयणत्तयणासो) जो रत्नत्रय का नाश है (सो भंगो जिणवरेहि णिद्दिद्यो) उसको जिनेन्द्रों ने व्रतभंग कहा है (पुणो सेस भंगेण) तथा शरीर के भंग होने पर पुरुष (सल्लेहणा अरिहो ण होदि) साधु के समाधिमरण के योग्य नहीं होता है । विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव निज परमात्मतत्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्ररूप जो आत्मा का निश्चल स्वभाव है उसका नाश सोही निश्चय से भंग है, ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है । तथा शरीर के भंग होने पर अर्थात् मस्तक भंग, अण्डकोष या लिंग भंग (वृषण भंग) वात-पीड़ित आदि शरीर की अवस्था होने पर कोई समाधिमरण के योग्य नहीं होता है अर्थात् लौकिक में निरावर के भय से निग्रंथ मेष के योग्य नहीं होता है। यदि कौपीन मात्र भी ग्रहण करे तो साधु पद की भावना करने के योग्य होता है। भावार्थ-स्त्रियों के तीन अन्त के ही संहनन होते हैं जिससे यह मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकती । १६ स्वर्ग से ऊपर तथा छठे नरक के नीचे स्त्री का गमन नहीं हो सकता है, न यह सातवें नरक जा सकती, न वेयक आदि में जा सकती है । श्वेताम्बर लोग स्त्रियों के मोक्ष की कल्पना करते हैं सो बात उन्हीं के शास्त्रों से विरोध रूप भासती है। कुछ श्वेताम्बरी शास्त्रों की बातें
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy