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________________ पवयणसारो ] [ ६३३ सामान्य और विरोध के सत्य शिलाराम दर्शन और ज्ञान 'शुद्ध' के ही होते हैं,निर्विघ्न प्रफुल्लित, सहज ज्ञानानन्द मुद्रा वाला दिव्य जिसका स्वभाव है ऐसा निर्वाण, 'शुद्ध' के ही होता है और टंकोत्कीर्ण परमानन्दरूप अवस्थाओं में स्थित आत्मस्वभाव को उपलब्धि से गंभीर भगवान् सिद्ध 'शुद्ध' ही होते हैं, बचन विस्तार से बस हो, सर्व मनोरथों के स्थानभूत, मोक्षतत्व के साधनतत्वरूप, 'शुद्ध' को, भावनमस्कार हो । उस भाव नमस्कार में परस्पर अंग-अंगीरूप से परिणमित भावक-भाव्यता के कारण स्व-पर का विभाग नहीं है ॥२७॥ विशेष-इस गाथा में सिद्ध अवस्था का कथन है तात्पर्यवृत्ति अथ शुद्धोपयोगलक्षण मोक्षमार्ग सर्वमनोरथस्थानत्वेन प्रदर्शयति ;-- भणियं भणितं । किं ? सामपणं सम्यग्दर्शनशानचारित्रैकाग्यशत्रुमित्रादिसमभावपरिणतिहाई साक्षान्मोक्षकारणं यत्श्रामण्यम् । तत्तावत्कस्य ? सुजस्य य शुद्धस्य च शुद्धोपयोगिन एव सुखस्स दंसणं णाणं लोक्योदरविवरबत्तित्रिकालविषयसमस्तवस्तुगतानन्तधमकसमयसामान्यविशेषपरिच्छित्तिसमर्थ यदर्शनज्ञानद्वयं तच्छुद्धस्यैव सुद्धस्य य मिटवाणं अध्यावाधानन्त सुखादिगुणाधारभूतं पराधीनरहितत्वेन स्वायत्तं यनिर्वाणं तच्छद्धस्यैव सो च्चिय सिद्धो यो लौकिक मायाजनरसदिग्विजयमंत्रयंत्रादि सिद्ध विलक्षणः स्वशुद्धात्मोपलम्भलक्षण: टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावो ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मरहितत्वेन सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतानन्तगुणसहितः सिद्धो भगवान् स चैव शुद्ध, एवं णमो तस्स निदोषिनिजपरमात्मन्याराध्याराधकसम्बन्धलक्षणो भावनमस्कारोऽस्तु तस्यैव । अतदुक्तं भवति-अस्य मोक्षकारणभूतशुद्धोपयोगस्य मध्य सर्वेष्टमनोरथा लभ्यन्त इति मत्वा शेषमनोरथपरिहारे तत्रैव भावना कर्तव्येति ॥२७४।। उत्थानिका-आगे आचार्य फिर दिखलाते हैं कि शुद्धोपयोग-स्वरूप जो मोक्षमार्ग है वही सर्व मनोरथ को सिद्ध करने वाला है __ अन्यय सहित विशेषार्थ--(सुद्धस्स य सामण्णं)ोपयोगी के ही साधुपना है, (सुद्धस्स दंसणं गाणं भणियं) शुद्धोपयोगी के ही दर्शन और ज्ञान कहे गये हैं (सुखस्स य णिध्वाणं) शुद्धोपयोगी के ही निर्वाण होता है (सो चिचय सिद्धो) शुद्धोपयोगी ही सिद्ध भगवान हो जाता है (तस्स णमो) इससे उस शुद्धोपयोगी को नमस्कार हो। जो शुद्धोपयोग का धारक साधु है उसी के ही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र को एकतारूप तथा शत्रु मित्र आदि में समभाव की परिणतिरूप साक्षात मोक्ष का मार्ग श्रमणपना कहा गया है शुद्धोपयोगी के ही तीन लोक के भीतर रहने वाले व तीन काल-बर्ती सर्व पदार्थों के भीतर प्राप्त जो अनन्त स्वभाव उनको एक समय में बिना क्रम के सामान्य तथा विशेष रूप से जानने को समर्थ अनन्तदर्शन व अनन्तज्ञान होते हैं तथा शुद्धोपयोगी के ही बाधा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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