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________________ ६३२ ] [ पवयणसारो पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले हैं तथा पंच-इन्द्रिय-विषयों के अधीन न होकर निज परमात्मतत्त्व को भावना रूप परम समाधि से उत्पन्न जो परमानन्दमय सुखरूपी अमृत उसका स्वाद भोगने के फल से पांचों इन्द्रियों के विषयों में रञ्चमात्र भी आसक्त नहीं हैं और अपने स्वरूप का ग्रहण करके जिन्होंने बाहरी क्षेत्रावि अनेक प्रकार और भीतरी मिथ्यास्वादि चौदह प्रकार परिग्रह को त्याग दिया है, ऐसे महात्मा, शुद्धात्मा-शुद्धोपयोगी ही मोक्ष को सिद्धि कर सकते हैं, ऐसा कहा गया है । अर्थात् ऐसे परमयोगी ही अभेदनय सेमोक्षमार्ग स्वरूप जानने योग्य हैं। अग्र मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वं सर्वमनोरथस्थानत्वेनाभिनन्दयति--- सुखस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दसणं णाणं । सुद्धस्स य णिव्वाणं सो चिचय सिद्धो णमो तस्स ॥२७४॥ शुद्धस्य च श्रामण्यं भणितं शुद्धस्य दर्शनं ज्ञानम् । शुद्धस्य च निर्वाणं स एव सिद्धो नमस्तस्मै ॥२७४॥ यत्तावत्सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रयोगपद्यप्रवृत्तकानयलक्षणं साक्षान्मोक्षमार्गभूतं श्रामण्यं तच्च शुद्धस्यव । यच्च समस्तभूतभवद्धावियांतरेककरभ्यितामन्तवस्त्वन्यात्मविश्वसामान्यविशेषप्रत्यक्षप्रतिभासात्मक दर्शनं ज्ञानं च तत् शुद्धस्यैव । यच्च निःप्रतिविम्भितसहजज्ञानानन्दमुद्रितदिव्यस्वभावं निर्वाणं तत् शुद्धस्यंत यश्च टड्डोत्कीर्णपरमानन्दावस्थासु स्थितात्मस्वभावोपलम्भगम्भीरो भगवान् सिद्धः स शुद्ध एव अलं वाग्विस्तरेण, सर्वमनोरथस्थानस्य मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वस्य शुद्धस्य परस्परमङ्गाङ्गिभावपरिणतभाव्यभाधकभावत्वात्प्रस्तमितस्वपरविभागो भावनमस्कारोऽस्तु ॥२७४॥ भूमिका--अब मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व को (अर्थात् शुद्धोपयोगी को) सर्व मनोरथों के स्थान के रूप में अभिनन्दन (प्रशंसा करते हैं .. अन्वयार्थ- [शुद्धस्य च] शुद्धोपयोगी को [श्रामण्यं भणितं] श्रामण्य कहा है, [शुद्धस्य च] और शुद्धोपयोगी को [दर्शनं ज्ञान ] दर्शन तथा ज्ञान होता है, [शुद्धस्य च] शुद्ध उपयोगी के ही [निर्वाणं] निर्वाण होता है, [स: एव] वही [सिद्ध] सिद्ध होता है, [तस्मै नमः] उन्हें नमस्कार हो । टीका---प्रयम तो, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की युगपदत्व रूप से प्रवर्तमान एकाग्रता जिसका लक्षण है ऐसा साक्षात मोक्षमार्गभूत श्रामण्य 'शुद्ध' के ही होता है, समस्त भूतवर्तमान भावी पर्यायों के साथ मिलित अनन्त बस्तुओं का अन्धयात्मक जो विश्व उसके
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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