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________________ ताप पवयणसारो ] [ ६३१ __ अन्वयार्थ-[सम्यग्विदितपदार्थाः] सम्यक् (यथार्थतया) पदार्थों को जानने वाले हैं और [ये] जो [बहिःस्थमध्यस्थम् ] बहिरंग तथा अंतरंग. [उपधिं] परिग्रह को [त्य त्वा] छोड़कर [विषयेषु न अवसक्ताः] विषयों में आसक्त नहीं हैं, [ते] वे [शुद्धाः इति निर्दिष्टा:] 'शुद्ध' हैं ऐसा कहा गया है। टीका--अनेकान्त मय-सकल ज्ञातृतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथार्थ स्वरूप में जो विचक्षण हैं, अन्तरंग में चमत्कृत अनन्तशक्ति वाले चैतन्य से प्रकाशित आत्मतत्व के स्वरूप को, जिसने समस्त बहिरंग तथा अन्तरंग परिग्रह को त्याग करके, भिन्न किया है और आत्म-परिणति से स्वरूप गुप्त तथा सुषुप्त समान (प्रशांत) रहने से जो विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त नहीं होते,-ऐसे जो सकल-महिमावान् भगवन्त 'शुद्ध' हैं उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधन तत्त्व जानना । (अर्थात वे शुद्धोपयोगी हो मोक्षमार्गरूप हैं), क्योंकि वे अनादि संसार से रचित-बद्ध विकट कर्मकपाट को तोड़ने में अति उग्र प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं। २७३।। तात्पर्यवृत्ति अथ मोक्षकारणमाख्याति; सम्म यिदिदपदत्था संशयविपर्ययानध्यवसायरहितानन्तज्ञानादिस्वभावनिजपरमात्मपदार्थप्रभृतिसमस्तवस्तुबिचारचतुरचित्तचातुर्यप्रकाशमानसातिशयपरमविवेकज्योतिषा सम्यग्विदितपदार्थाः । पुनरपि कि रूपाः ? विसयेसु णावसत्ता पञ्चेन्द्रियविषयाधीनरहितत्वेन निजात्मतत्त्वभाबनारूपपरमसमाधिसंजातपरमानन्दैकलक्षणसुख सुधारसास्वादानुभवनफलेन विषयेषु मनागप्यनासक्ताः । कि कृत्वा ? पूर्व स्वस्वरूपपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा चत्ता त्यक्त्वा । कम ? जहि उपधि परिग्रहं । कि विशिष्टम् ? बहिस्थमज्झत्थं बहिःस्थ क्षेत्राद्यनेकविध मध्यस्थं मिथ्यात्वादिचतुर्दशभेदभिन्नम् । जे एवं गुणविशिष्टाः ये महात्मानः ते सुद्धति णिद्दिहा ते शुद्धात्मानः शुद्धोपयोगिनः सिद्ध्यन्ति इति निर्दिष्टाः कथिताः। अनेन व्याख्यानेन किमुक्त भवति–इत्थंभूता परमयोगिन एवाभेदेन मोक्षमार्गा इत्यवबोद्धव्याः ॥२७३॥ उत्थानिका- आगे मोक्ष का कारण तत्व बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे) जो (सम्म विशिवपक्त्या) मले प्रकार पदार्थों को जानने वाले हैं, और (बहित्थ) बाहरी क्षेत्रादि परिग्रह (ममत्थं) और अंतरंग रागादि (उर्हि) परिग्रह को (चत्ता) त्याग कर (विसयेसु) पांचों इन्द्रियों के विषयों में (णावसत्ता) आसक्त नहीं हैं। (ते) वे साधु (सुद्धत्ति शिविठ्ठा) शुद्ध साधक हैं, ऐसे कहे गये हैं। जो साधु संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय तीन दोषों से रहित ऐसा अनन्तज्ञान, उस अनन्तज्ञानादि स्त्रभाव वाले निज-परमात्म पदार्थ को आदि लेकर सर्व वस्तुओं के विचार में चतुर-चित्त होकर उससे प्रगट जो अतिशय सहित परम विवेकल्पी ज्योति उसके द्वारा भले प्रकार
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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