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________________ । पवयणसारो सर्वात्मप्रदेशोद्भवस्वाभाविकातीन्द्रियज्ञानसुखविनाशकानि च यानीन्द्रियाणि निश्चयरलत्रयात्मककारणसमयसारबलेनातिकामति विनाशयति यदा तस्मिन्नेव क्षणे समस्तबाधारहितः सन्नतीन्द्रियमनन्तमात्मोत्थसुखं ध्यायत्यनुभवति परिणमति। ततो ज्ञायते केवलिनामन्यचिन्तानि रोधलक्षणं ध्यानं नास्ति कित्विदमेव परमसुखानुभवनं वा ध्यानकार्यभूतां कर्मनिर्जरां दृष्ट्वा ध्यानशब्देनोपचर्यते । यत्पुनः सयोगिकेवलिनस्तृतीय शुक्लध्यानमयोगिकेलिनश्चतुर्थशुक्लध्यानं भवतीत्युक्त तदुपचारेण ज्ञातव्यमिति सूत्राभिप्रायः ॥१६॥ एवं केवली कि ध्यायतीति प्रश्नमुख्यत्वेन प्रथमगाथा। परमसुखं ध्यायत्यनुभवतीति परिहारमुख्यत्वेन द्वितीया चेति ध्यानविषयपूर्वपक्षपरिहारद्वारेण तृतीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । उत्थानिका-आगे इस पूर्वपक्ष का समाधान करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(सध्यावाविजुत्तो) सर्व प्रकार की बाधा से रहित व (समंतसव्यक्खसोक्खणाणड्ढो) सब रह से सर्व सामोद तुप और ज्ञान से पूर्ण (अक्खातोदो) तथा अतीन्द्रिय (भूदो) होकर (अणक्खो) दूसरों के भी इन्द्रियों के जो विषय नहीं हैं, ऐसे केवली भगवान् (परं सोक्खं) परमानन्द को (शादि) च्याते हैं। जिस समय से केवली भगवान् इन्द्रियज्ञान से रहित अतीन्द्रिय हुए, व सर्व प्रकार की पीड़ा से रहित हुए तथा सर्व आत्मा के प्रदेशों में आत्मीक शुद्ध ज्ञान तथा शुद्धसुख से परिपूर्ण हुए उसी समय से वे भगवान् जिनकी आत्मा दूसरों के इन्द्रियों का विषय नहीं हैं किसी परम उत्कृष्ट सम्पूर्णआत्मा के प्रदेशों में आह्लाद देने वाले अनन्त सुखरूप एकाकार समता रस के भाव से परिणमन करते रहते हैं अर्थात् निरन्तर अनन्तसुख का स्वाद लेते रहते हैं। जिस समय यह भगवान् एक देश होने वाले सांसारिक ज्ञान और सुख को कारण तथा सब आत्मा के प्रदेशों में पैदा होने वाले स्वाभाविक अतीन्द्रियज्ञान और सुख को नाश करने वाली इन्द्रियों का निश्चयरत्नत्रयमयी कारण समयसार के बल से उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् उन इन्द्रियों के द्वारा प्रवृत्ति को नामा कर देते हैं उसी ही क्षण से वे सर्व बाधा से रहित हो जाते हैं, तथा अतीन्द्रिय और अनंत आत्मा से उत्पन्न आनन्द का अनुभव करते रहते हैं अर्थात् आत्म सुख को ध्याते हैं व आत्मसुख में परिणमन करते हैं। इससे जाना जाता है कि केवलियों को दूसरा कोई चिन्तानिरोध लक्षण ध्यान नहीं है, किन्तु इसी परम सुख का अनुभव है अथवा उनके ध्यान के फलरूप कर्म की निर्जरा को देखकर ध्यान है ऐसा उपचार किया जाता है तथा जो आगम में कहा है कि सयोगकेवली के तीसरा शुक्लायान व अयोगकेवली के चौथा शुक्लध्यान होता है वह उपचार से जानना चाहिये, ऐसा सूत्र का अभिप्राय है ॥१६॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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