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पवयणसारो ।
[ ४६५ भूमिका-अब, सूत्र द्वारा (उपरोक्त गाथा के प्रश्न का) उत्तर देते हैं कि-जिसने शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है वह सकलज्ञानी इस (परमसौख्य) को ध्याता है।
____ अन्वयार्थ- [अनक्षः] अनिन्द्रिय (दूसरे को इन्द्रिय-ज्ञानगम्य न होने वाले) और [अक्षातीतः भूतः] इन्द्रियों से रहित हुए (तथा) [सर्वाबाधवियुक्तः] सर्व बाधा रहित और [समंतसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यः] सम्पूर्ण आत्मा में समंत (सर्व प्रकार के, परिपूर्ण) सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध (केवली भगवान्) [परं सौख्यं] परम सौख्य को [ध्यायति ] ध्याते हैं ।
टीका-जब यह आत्मा, जो सहजसुख और ज्ञान की बाधा का आयतन (स्थान) है (एसी) तथा जो असकल आत्मा में असर्व प्रकार के सुख और ज्ञान का भायतन है, ऐसी इन्द्रियों के अभाव के कारण स्वयं अतीन्द्रिय रूप से वर्तता है, उसी समय वह दूसरों को 'इन्द्रियातीत' (इन्द्रिय अगोचर) वर्तता हुआ (१) निराबाध सहज सुख और ज्ञान दाला होने से 'सर्वबाधा' रहित होता है, तथा (२) सकल आत्मा में सर्व प्रकार के (परिपूर्ण) सुख और ज्ञान से परिपूर्ण होने से 'समस्त आत्मा में समंत सौल्य और ज्ञान प्ते समद्ध' होता है । इस प्रकार का वह आत्मा सर्व अभिलाषा, जिज्ञासा और सन्देह का असम्भव होने पर भी, अपूर्व और अनाकुलत्व लक्षण वाले परमसौख्य को ध्याता है, अर्थात् अनाकुलत्व संगत एक 'अन' के संचेतन मात्ररूप से अवस्थित रहता है, (अर्थात् अनाकुलता के साथ रहने वाले एक आत्मा रूपी विषय के अनुभवन रूप ही मात्र स्थित रहता है) और ऐसा अवस्थान सहज ज्ञानानन्द स्वभावरूप सिद्धत्व की सिद्धि ही है। (अर्थात् इस प्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है ऐसे सिद्धत्व की प्राप्ति ही है ।) ॥१६॥
तात्पर्यवृत्ति अथात्र पूर्वपक्षे परिहारं ददाति
झादि ध्यायति एकाकारसमरसीभावेन परिणमत्यनुभवति । स कः कर्ता ? भगवान् । कि घ्यायति ? सोक्खं सौख्यम् । किविशिष्टम् ? परं उत्कृष्टं सर्वात्मप्रदेशालादकपरमानन्तसुखम् । कस्मिन्प्रस्तावे? यस्मिन्नेव क्षणे भूदो भूतः संजातः । किविशिष्ट: ? अक्खातीदो अक्षातीतः इन्द्रियरहित: न केवलं स्वयमतीन्द्रियो जातः परेषां च अणक्खो अनक्षः इन्द्रियविषयो न भवतीत्यर्थः । पुनरपि किविशिष्ट: ? सवाबाधविजुत्तो "प्राकृत लक्षणवलेन बाधाशब्दस्य ह्रस्वत्वं" सर्वाबाधवियुक्तः । आसमन्ताद् बाधाः पीडा बाबाधा: सर्वाश्च ता आबाधाश्च सर्वाबाधास्ताभिषियुक्तो रहितः सर्वावाधवियुक्तः । पुनश्च किरूपः ? समंतसव्वाखसोक्खणाणड्ढो समन्तत: सामस्त्येन स्पर्शनादिसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढयः । समन्ततः सर्वात्मप्रदेश, स्पर्शनादिसर्वेन्द्रियाणां सम्बन्धित्वेन ये ज्ञानसौख्ये द्वे ताभ्यामाढय: परिपूर्ण इत्यर्थः । तद्यथा-अयं भगवानेकदेशोद्भवसांसारिकाज्ञानसुखकारणभूतानि