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________________ पवयणसारो ] [ ११७ को प्राप्त फिर अन्य व्यक्ति को प्राप्त होता हुआ (अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होनाधिक होता हुआ) क्षायिक भी नहीं होता। अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को प्राप्त करने के लिये (जानने के लिये) असमर्थपने से सर्वगत नहीं होता है ॥५०॥ तात्पर्यत्ति अथ क्रमप्रवृत्तज्ञानेन सर्वज्ञो न भवतीति व्यवस्थापयति अप्पज्जवि जवि णाणं उत्पद्यते ज्ञान यदि चेत् कमसो क्रमशः सकाशात् किं कृत्वा ? अटठेपच्च ज्ञेयार्थानाश्रित्य कस्य ? णाणिस्स ज्ञानिन: आत्मन: तं णेष हववि णिच्चं उत्पत्तिनिमित्तभूतपदार्थविनाशे तस्यापि विनाश इति नित्यं न भवति । ण खाइयं ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमाधीनत्वात् क्षायिकमपि न भवति । णेव सध्वगयं यत एवं पूर्वोक्तप्रकारेण पराधीनत्वेन नित्यं न भवति, क्षयोपशमाधीनत्वेन क्षायिकं न भवति तत एव युगपत्समस्नद्रव्य क्षेत्रकालभावानां परिज्ञानसामाभावासवंगतं न भवति । अत एतत्स्थितं यद् ज्ञानं क्रमेणार्थान् प्रतीत्य जायते तेन सर्वज्ञो न भवति इति ।।५०।। उत्थानिका--आगे कहते हैं कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों के जानने में प्रवत्ति करता है उस ज्ञान से कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है अर्थात् क्रम से जानने वाले को सर्वज्ञ नहीं कह सकते। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (णाणिस्त) ज्ञानी आत्मा का (णाण) ज्ञान (अ) जानने योग्य पचायों को चिच) आश्रय कर कमलो) क्रम से (उपज्जवि) पैदा होता है। तो (तं) वह ज्ञान (णिच्च) अविनाशी (व) नहीं (हादि) होता है अर्यात जिस पदार्थ निमित्त से ज्ञान उत्पन्न हुआ है उस पदार्थ के नाश होने पर उस पदार्थ का ज्ञान भी नाश होता है इसलिये वह ज्ञान सदा नहीं रहता है, इससे नित्य नहीं है। (ण खाइयं) न क्षायिक है क्योंकि वह परोक्षज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अधीन है (व सन्चगयं) और न यह सर्वगत है, क्योंकि जब वह पराधीन होने से नित्य नहीं है, क्षयोपशम के अधीन होने से क्षायिक नहीं है, इसीलिये ही वह ज्ञान एक समय में सर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों को मानने के लिये असमर्थ है इसलिये सर्वगत नहीं है। इसले यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों का आश्रय लेकर पैदा होता है उस ज्ञान के रखने से सर्वज्ञ नहीं हो सकता ।।५०॥ अथ योगपद्यप्रवृत्त्यय ज्ञानस्य सर्वगतत्वं सिद्धचतीति व्यवतिष्ठते तिक्कालगिच्चविसमं सयलं सम्वत्थसंभवं चित्तं । जुगवं जाणवि जोण्हं अहो हि णाणस्स महाप्पं ॥५१॥ काल्पनित्यविषमं सकलं सर्वत्रसंभवं चित्रम् । युगपज्जानाति जैनमहो हि ज्ञानस्य माहात्म्यम् ।।५१।।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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