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________________ ११८ 1 [ पवयणसारो क्षायिक हि ज्ञानमतिशयास्पदीभूतपरममाहात्म्यं, यत्तु युगपदेव सर्वार्थानालम्ब्य प्रवर्तते ज्ञानं तट्टोत्कीर्णन्यायावस्थितसमस्तवस्तुज्ञेयाकारतयाधिरोपितनित्यत्वं प्रतिपन्नसमस्तव्यक्तित्वेनाभिव्यक्तस्वभावभासिक्षायिकभावं त्रैकाल्येन नित्यमेव विषमीकृतां सकलामपि सर्वार्थसंभूतिमनन्तजातिप्रापितवैचित्र्यं परिच्छिन्दवक्रमसमानान्तानन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया प्रकटीकृताद्भुतमाहात्म्यं सर्वग्तमेव स्यात् ॥५१॥ भूमिका-अब, युगपत् प्रवृत्ति से ही ज्ञान का सर्वगतपना सिद्ध होता है, यह निश्चित करते हैं अन्वयार्थ-[काल्यनित्यविषमं] त्रिकालिक, नित्य, विषम, [सर्वत्र संभव | सर्व क्षेत्रों में होने वाले, तथा [चित्रं] अनेक प्रकार के, [सकलं] समस्त पदार्थों को [जनं] जिनदेव का ज्ञान [युगपत्] एक साथ [जानाति] जानता है। [अहो हि] अहो ! [ज्ञानस्य माहात्म्य ] (यह) ज्ञान का माहात्म्य है ।। टीका–क्षायिकज्ञान वास्तव में सवोत्कृष्टता का स्थानभूत परम महिमा वाला है। (क्यों ? इसी को आचार्य स्वयं स्पष्ट करते हैं। लागिकजान युगपत् (एक साथ ही) समस्त पदार्थों का आलम्बन लेकर प्रवर्तता है, तथा समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकार टंकोत्कीर्ण न्याय से अवस्थित (अपने में स्थित) होने से जिसने नित्यत्व प्राप्त किया है, तथा समस्त व्यक्तित्व को प्राप्त कर लेने से जिसने स्वभाव-प्रकाशक क्षायिकभाव प्रगट किया है, ऐसा वह ज्ञान कालिक, नित्य तथा विषम (असमानजाति रूप से परिणत होने वाले), अनन्त प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त, सम्पूर्ण सर्व पदार्थों के समूह को जानता हुआ, अक्रम से (युगपत् ) अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य को प्रगट किया है, सर्वगत ही है ॥५१॥ तात्पयत्ति अथ युगपत्परिच्छित्तिरूपज्ञानेनव सर्वज्ञो भवतीत्यावेदयति .. जाणवि जानाति । कि कर्तृ ? जोण्हं जनं ज्ञानं । कथं ! जुगवं युगपदेकसमये अहो हि गाणस्स माहप्पं अहो हि स्फुटं जनज्ञानस्य माहात्म्यं पश्यताम् । किं जानाति ? अर्थमित्यध्याहारः । कथंभूतं ? तिवकालणिच्चविसमं त्रिकालविषयं त्रिकाल गतं नित्यं सर्वकालं । पुनरपि किंविशिष्ट ? सयल समस्तं । पुनरपि कथंभूतं ? सम्बत्यसंभव सर्वत्रलोके संभवं समुत्पन्न स्थितं । पुनश्च किरूपं ? चित्तं नानाजातिभेदेन विचित्रमिति । तथाहि युगपत्सकलग्राहकज्ञानेन सर्वज्ञो भवतीति ज्ञात्वा किं कर्तव्यं ? ज्योतिष्कमन्त्रवादरससिद्धचादीनि यानि खण्डविज्ञानानि मूढजीवानां चित्तचमत्कारका रणानि परमात्मभावनाविनाशकानि च तत्र ग्रहं त्यक्त्वा जगत्रयकाल श्यसकलवस्तु युगपत्प्रकाशकमविनश्वरमखण्डकप्रतिभासरूपं सर्वज्ञ.
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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