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________________ पवयणसारो ] [ ११६ शब्दवाच्य यस्केवलज्ञानं तस्यैवोत्पत्ति रणभूतं यत्समस्त रागादिविकल्पजालेन रहितं सहजशुद्धात्मनो. ऽभेदज्ञानं तत्र भावना कर्तव्या, इति तात्पर्यम् ।।५।। एवं केवलज्ञान मेव सर्वज्ञ इति कथनरूपेण गाथै का, तदनन्तरं सर्वपदार्थपरिज्ञानमिति प्रथमग्नथा परमात्मज्ञानाच्च सर्वपदार्थ परिज्ञानमिति द्वितीया चेति । ततश्च क्रमप्रवृत्तज्ञानेन सर्वज्ञो न भवतीति प्रथमगाथा, युगगदग्राहकेण स भवतीति द्वितीया ति समुदायेन सप्तमस्थले गाथापच्वकं गतम् । भूमिका--अब यह प्रगट करते हैं कि जो एक समय में सब को जान सकता है, उसी शान से सर्वन होता है अन्वय सहित विशेषार्थ-(जोव्ह) जिनेन्द्र का ज्ञान अर्थात् जिनशासन में जिस प्रत्यक्षज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं वह ज्ञान (जुगवं) एक समय में (सव्वत्थसंभव) सर्व लोकालोक में स्थित तथा (चित्त) नाना जाति भेद से विचित्र (सपलं) सम्पूर्ण (तिकालणिच्चयिसम) तीन काल सम्बन्धी पदार्थों को सदा काल विषमरूप अर्थात् जैसे उनमें भेद हैं उन भेदों के साथ अथवा 'तिक्कालगिच्चविसयं' ऐसा भी पाठ है जिसका अर्थ है तीन काल के सर्व द्रव्य अपेक्षा नित्य पदार्थों को (जाणदि) जानता है। (अहो हि णाणस्स माहप्पं) अहो निश्चय से ज्ञान का माहात्म्य आश्चर्यकारी है। विशेष भाव यह है कि एक समय में सर्व को ग्रहण करने वाले ज्ञान से ही सर्वज्ञ होता है ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो कहते है ज्योतिष, मन्त्र, वाद, रस-सिद्धि आदि के जो खण्डज्ञान हैं तथा जो मूढ जीवों के चित्त में चमत्कार करने के कारण हैं और जो परमात्मा की भावना के नाश करने वाले हैं उन सर्व ज्ञानों में आग्रह या हठ त्याग करके तीन जगत् च तीन काल की सर्व वस्तुओं को एक समय में प्रकाश करने वाले, अविनाशी तथा अखण्ड और एक रूप से उद्योत रूप तथा सवंजत्व शब्द से कहने योग्य जो केवलज्ञान है, उसकी ही उत्पत्ति का कारण जो सर्व रागद्वेषादि विकल्प-जालों से रहित स्वाभाविक शुद्धात्मा का अभेदज्ञान अर्थात् स्वानुभव रूप ज्ञान है उसमें भावना करनी योग्य है, यह तात्पर्य है ॥५१॥ . इस प्रकार केवलज्ञान ही सर्वज्ञपना है, ऐसा कहते हुए गाथा एक, फिर सर्व पदार्थों के परिज्ञान से परमात्मज्ञान होता है ऐसी एक गाथा, परमात्मज्ञान से सर्व पदार्थ का परिज्ञान होता है ऐसी दूसरी गाथा है। फिर क्रम से होने वाले ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होता है, ऐसा कहते हुए एक गाथा तथा एक समय में सर्व को जानने से सर्वज्ञ होता है, ऐसा कहते हुए दूसरी, इस तरह सातवें स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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