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________________ पवयणसारो ] [ ३२३ उसमें, 'भाव' परिणाममात्र लक्षण वाला है, (और) "किया' परिस्पंद (कम्पन) लक्षण वाली है। इनमें, समस्त द्रव्य भाव वाले तो हैं ही, क्योंकि परिणाम स्वभाव वाले होने से परिणाम के द्वारा अन्वय (सह भावित्व ध्रुवता) और व्यतिरेक (क्रम-भावित्व पर्याय) को प्राप्त होते हुये वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। पुद्गल तो (भाव वाले होने के अतिरिक्त) किया वाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंव-स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा पृथक् पृथक पुद्गल एकत्रित हो जाने से और एकत्रित-मिले हुये पुद्गल पुनः पृथक् हो जाने से वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं तथा जीव भी (भाव वाले होने के अतिरिक्त) क्रिया वाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पंद स्वभाव वाले होने से परिस्पंद के द्वारा नवीन कर्म-नोकर्मरूप भिन्न पुद्गलों के साथ एकत्रित होने से और कर्म-नोकर्मरूप एकत्रित हुये पुद्गलों से बाद में पृथक् होने से, ये जीव उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं, और नष्ट होते हैं ॥१२६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्याणां सक्रियनिःक्रियत्वेन भेदं दर्शयतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु जीवपुद्गलयोरर्थव्यञ्जनपर्यायौ द्वौ, शेषद्रव्याणां तु मुख्यवृत्त्यार्थपर्याय इति व्यवस्थापयति, जायदि जायते। के कर्तारः ? उप्पादडिदिभंगा उत्पादस्थितिभङ्गा। कस्य संबन्धिनः ? लोगस्स लोकस्य । कि विशिष्टस्य ? पोग्गलजीवप्पगस्स । पुद्गलजीवात्मकस्य पुद्गलजीवावित्युपलक्षणं पड्द्रव्यात्मकस्य । कस्मात्सकाशात् जायन्ते ? परिणामादो परिणामात् एकसमयवतिनोऽर्थपर्यायात् संघाबाको व भेदादो केवलमर्थपर्यायात्सकाशाज्जायन्ते । जीवपुद्गलानामुत्पादादय: संघाताद्वा भेदाद्वा व्यञ्जनपर्यायादित्यर्थः । तथाहि-धर्माधर्माकाशकालानां मुख्यवृत्यकसमयवर्तिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानामर्थपर्यायव्यञ्नपर्यायाश्च । कथमिति चेत् ? प्रतिसमयपरिणतिरूपा अर्थपर्याया भण्यन्ते । यदा जीवोऽनेन शरीरेण सह भेदवियोगं त्यागं कृत्वा भवान्तरशरीरेण सह संघातं मेलापकं करोति तदा विभावव्यञ्जनपर्यायो भवति, तस्मादेव भवान्तरसंक्रमणात्सक्रियत्वं भण्यते पुद्गलानां तथैव विवक्षितस्कन्धविघटनात्सनियत्वेन स्कन्धान्तरसंयोगे सति विभावब्यञ्जनपर्यायो भवति । मुक्तजीवानां तु निश्चयरत्नत्रयलक्षणेन परमकारणसमयमारसंज्ञेन निश्चयमोक्षमार्गबलेनायोगिचरमसमये नखकेशान्बिहाय परमौदारिकशरीरस्य विलीयमानरूपेण विनाशे सति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिलक्षणेन परमकार्यसमयसाररूपेण स्वभावव्यञ्जनपर्यायेण कृत्वा योऽसावुत्पादः स भेदादेव भवति न संघातात् । कस्मादितिचेत् ? शरीरान्तरेण सह संवन्धाभाबादिति भावार्थः ।।१२६॥ एवं जीवाजीवत्वलोकालोकत्वसक्रियनिः क्रियत्वकथनक्रमेण प्रथमस्थले गाथात्रयं गतम् । उस्थानिका—आगे द्रव्यों में सक्रिय और निःक्रिय भेद को दिखलाते हैं यह एक पातनिका है । दूसरी यह है कि जीव और पुद्गल में अर्थ-पर्याय और व्यंजन-पर्याय दोनों होती हैं जबकि शेष द्रव्यों में मुख्यता से अर्थपर्याय होती है, इसको सिद्ध करते हैं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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