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________________ १०० ] [ पत्रयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथानन्तपदार्थ परिच्छित्तिपरिणमनेऽपि ज्ञानं बन्धकारणं न भवति, न च सागादिरहितकर्मोदयोपीति निश्चिनोति, उदयगया कम्मंसा जिणवरवसहेहि णियविणा मणिया उदयगता उदयं प्राप्ताः कमीशा शानावरणादिमूलोत्तरकर्मप्रकृतिभेदा: जिनवरवृषभैनियत्या स्वभावेन भणिताः, किन्तु स्वकीयशुभाशुभाफलं दत्त्वा गच्छन्ति, न च रागादिपरिणामरहिताः सन्तो बन्धं कुर्वन्ति । तर्हि कथं बन्ध करोति जीव. इति चेत् ? सेसु विमूढो रत्तो दुवो वा बन्धमणुमवधि तेषु उदयागतेषु सत्सु कर्माशेषु मोहरागद्वेषविलक्षणनिज शुद्धात्मतत्त्वभावनारहितः सन् यो विशेषेण मूढ़ो रक्तो दुष्टो वा भवति स: केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिलक्षणमोक्षाद्विलक्षणं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नं बन्धमनुभवति । ततः स्थितमेतत् ज्ञानं बन्धकारणं न भवति कर्मोदयोऽपि, किन्तु रागादयो बन्धकारणमिति ॥४३॥ उत्थानिका-आगे निश्चय करते हैं कि अनन्त पदार्थों को जानते हुए भी ज्ञान बन्ध का कारण नहीं है, और न रागादि रहित कर्मों का उदय ही बन्ध कारण है। अर्थात् नवीन कर्मों का बन्ध न ज्ञान से होता है न पिछले कर्मों के उदय से होता है किन्तु रागद्वेष-मोह से बन्ध होता है। ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(उदयगया) उदय में प्राप्त (कम्मंसा) कर्माश अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि मूल तथा उत्तर प्रकृति के भेव रूप कर्म (जिणवरवसहेहि) जिनेन्द्र वीतराग भगवानों के द्वारा (णियदिणा) नियतपने रूप अर्थात् स्वभाव से काम करने वाले (भणिया) कहे गये हैं। अर्थात जो कर्म उदय में आते हैं वे अपने शुभ फल को देकर चले जाते हैं वे नये बंध को नहीं करते यदि आत्मा में रागादि परिणाम न हों तो फिर किस तरह जीव बंध को प्राप्त होता है । इसका समाधान करते हैं। कि (तेसु) उन उदय में आए हए कर्मों में (हि) निश्चय से (विमूढ़ो) मोहित होता हआ (रत्तो) रागी होता (वा दुवो) अथवा द्वेषी होता हुआ (बंध) बंध को, (अणुभवदि) अनुभव करता है । जब कर्मों का उदय होता है तब तो जीव मोह-राग-द्वेष से विलक्षण निज शुद्ध आत्मतत्व को भावना से रहित होता हुआ विशेष करके मोही, रागी या वेषी होता है सो केवलज्ञान आदि अनंत गुणों में प्रगटता नहीं हो जाती है ऐसे मोक्ष से विलक्षण प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार प्रकार अधिक भोगता है अर्थात् उसके नए कर्म बन्ध जाते हैं। इससे यह ठहरा कि न ज्ञान बन्ध का कारण है न कर्मों का उदय बंध का कारण है किन्तु रागादि भाव ही बंध के कारण हैं ॥४३॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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