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पवयणसारो ]
[ १०१ अथ केवलिनां क्रियापि क्रियाफलं न साधयतीत्यनुशास्तिठाणणिसेज्जविहारा धम्मुवदेसो य णियबयो' तेसि । अरहताणं कालेमायाचारोव्व इत्थीणं ॥४४॥
स्थाननिषद्याविहारा धर्मोपदेशश्च नियतयस्तेषाम् ।
अर्हता काले मायाचार इव स्त्रीणाम् ।।४।। यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एच मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहारः प्रवर्तते, तथाहि केवलिना प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयो. ग्यतासद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते । अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुबर्ष च पुरुषप्रयत्नमान्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एवं दृश्यन्ते, सोही स्थानापयो मोहोदय पूर्वपदावाया क्रियाविशेषा अपि फेलिनां कियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति ॥४४॥
भूमिका-अब, केवली भगवान् के क्रिया भी क्रियाफल (बन्ध) उत्पन्न नहीं करती, ऐसा उपदेश देते हैं
अन्धयार्थ— [तेषां अर्हतां] उन अरहन्त भगवन्तों के [काले] उस समय में (यथा समय) [स्थाननिषद्याविहाराः] खड़े होना, बैठना, विहार करना [च] और [धर्मोपदेशः] धर्मोपदेश [नियतयः] स्वाभाविक ही (इच्छा या प्रयत्न बिना ही) होता है। [स्त्रीणां मायाचार: इव] स्त्रियों के मायाचार की भांति ।
टीका-जैसे स्त्रियों के प्रयत्न के बिना भी, उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से, स्वभाव से ही माया के ढक्कन से ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है, उसी प्रकार केयलियों के, प्रयत्न के बिना भी उस प्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से, खड़े रहना, बैठना, विहार करना और धर्म-देशना स्वभावभूत हो प्रवर्तते हैं । और यह (प्रयत्न के बिना बिहार आदि का होना) बादल के दृष्टान्त से अविरुद्ध है। जैसे बादल के आकार रूप परिणत पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्न के बिना भी देखी जाती है, उसी प्रकार केवलियों के खड़े रहना इत्यादि अबुद्धिपूर्वक ही (इच्छा के बिना ही) देखे जाते हैं। इसलिये यह स्थानादिक विशेष क्रिया भी (खड़े रहना, बैठना इत्यादि का व्यापार) मोहोदय पूर्वक न होने से, केवलियों के क्रिया के फलभूत-बंध की साधन नहीं होती ।।४४॥
१. णिमदओ (ज० वृ०) । २. मायाचारो व (ज० .) ।