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________________ १०२ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ केवलिनां रागाद्यभावाद्धर्मोपदेशादयोपि बन्धकारणं न भवन्तीति कथयति-ठाण लेज्जविहारा धम्मुददेसो य स्थानमूर्ध्वंस्थितिनिषेधा चासनं श्री विहारो धर्मोपदेशश्च शियदओ एते व्यापारा नियतयः स्वभावा अनीहिताः केषां ? लेसि अरहंताणं तेषामहंतां निर्दोषपरमात्मनां । क्व ? काले अर्हदवस्थायां । क इव ? मायाचारो व इत्यीणं मायाचार इव स्त्रीणामिति । तथाहि यथा स्त्रीणां स्त्रीवेदोदय सद्भावात्प्रयत्नाभावेऽपि मायाचारः प्रवर्तते, तथा भगवतां शुद्धाविपक्षभूत कार्य हा मावेपि श्रीविहारादयः प्रवर्तन्ते । मेधानां स्थानगमनगर्जनजलवर्षणादिवद्वा । ततः स्थितमेतत् मोहाद्यभावात् क्रियाविशेषा अपि बन्धकारणं न भवन्तीति ॥४४॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि केवली अरहंत भगवानों के तेरहवें सयोग केवली गुणस्थान में रागद्वेष आदि विभावों का अभाव है । इसलिये धर्मोपदेश विहार आदि भी बंध का कारण नहीं होता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेसि अरहंताणं ) उन केवलज्ञान के धारी निर्दोष जीवन्मुक्त सशरीर अरहंत परमात्माओं के ( काले ) अर्हत अवस्था में (ठाण णिसेज्जविहारा ) ऊपर उठना अर्थात् खड़े होना, बैठना, विहार करना ( धम्मुवदेसो य) और धर्मोपदेश इतने व्यापार ( णिदयः ) स्वभाव से होते हैं । इन कार्यों के करने में केवली भगवान् की इच्छा नहीं प्रेरक होती है, मात्र पुद्गल कर्म का उदय प्रेरक होता है ( इच्छीणं) स्त्रियों के भीतर ( मायाचारोव ) जैसे स्वभाव से कर्म के उदय के असर से मायाचार होता है । भाव यह है कि जैसे स्त्रियों के स्त्रीवेद के उदय के कारण से प्रयत्न के बिना भी मायाचार रहता है जैसे भगवान् अहंतों के शुद्ध आत्मतत्व के विरोधी मोह के उदय से होने वाली इच्छापूर्वक उद्योग के बिना भी समवशरण में बैठना, विहार आदिक होते हैं अथवा जैसे मेघों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, ठहरना, गर्जना, जल का वर्धना आदि स्वभाव से होता है, तंसे जानना । इससे यह सिद्ध हुआ कि मोह-राग-द्वेष के अभाव होते हुए विशेष क्रियायें भी बन्ध की कारण नहीं होती हैं ॥४४॥ अथैवं सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिचित्कर एवेत्यवधारयति - पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया । मोहादीहि विरहिदा' तम्हा सा खाइग' त्ति सदा ॥४५॥ पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनह औदयिकी । मोहादिभिः विरहिता तस्मात् सा क्षायिकीति मता ॥ ४५॥ अर्हन्तः खलु सकलसम्यक् परिपक्व पुण्यकल्पपादपफला एव भवन्ति । क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तदुदयानुभावसंभावितात्मभूतितया किलौदयिक्येव । अथैवंभूतापि सा १. बिरहिया २. खाइयति ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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