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________________ पवयणसारो ] समस्त महामोहमूर्द्धाभिषिक्तस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये [ १०३ संभूतत्वान्मोहरागद्वेषरूपाणामुपरजकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणता मनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्य मूलस्य बन्धस्थाका - रणभूसतया कार्यमूतस्य मोहन कारणता व सावि । कथं हि नाम नानुमन्येत ? अथानुमन्येत चेतहि कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविघाताय ॥४५॥ भूमिका- ऐसा होने पर, तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकचित्कर है ( स्वभाव का किंचित् भी घात नहीं करता है) ऐसा अब निश्चित करते हैं अन्वयार्थ – [ अर्हन्तः ] अरहन्त भगवान [ पुण्यफल: ] ( तीर्थंकर नामा) पुण्यप्रकृति के फल हैं [ पुनः ] और [तेषां क्रिया ] उनकी क्रिया [हि ] निश्चय से [ औदयिकी ] afrat है । [ मोहादिभिः विरहिता ] ( क्योंकि वह क्रिया) मोहादि से रहित है | तस्मात् | इसलिये [सा ] वह [ क्षयिकी ] क्षायिकी [ इति मता ] मानी गई है। $ टीका - अरहन्त भगवान् वास्तव में समस्त भली भांति परिपक्व पुण्य रूपी कल्पवृक्ष के फल ही हैं। उनकी जो भी क्रियायें हैं, वे सब उस (पुष्य) के उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औfunी ही हैं। ऐसा होने पर भी वह (ओदयिकी क्रिया) महामोह राजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय होने पर उत्पन्न होने से (तथा) मोह-राग-द्वेष रूपी उपरंजकों का अभाव होने से, चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती हुई नित्य औदयिकी है, तो भी कार्यभूत बंध की अकारणभूतता से और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूतता से क्षायिकी ही क्यों न मानी जाय ? ( अवश्य ही मानी जावं) जब क्षायिकी हो मानें तब कर्मविपाक ( कर्मोदय) भी उनके ( अरहन्तों के) स्वभाव के विधा के लिए ( विघात का कारण ) नहीं है (यह निश्चित होता है ) ॥४५॥ तात्पर्यदति अथ पूर्वं यदुक्तं रागादिरहितकर्मोदयो बन्धकारणं न भवति विहारादिक्रिया च तमेवार्थं प्रकारान्तरेण दृढयति पुष्णफला अरहंता पञ्चमहाकल्याणपूजा जनकं त्रैलोघयविजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तफलभूता अर्हन्तो भवन्ति तेसि किरिया पुणो हि ओदइया तेषां या दिव्यध्वनिरूपवचनव्यापारादिक्रिया सा निःक्रियशुद्धात्मतत्वविपरीतक मंदिय ज नितत्वात्सर्वाप्यदयिकी भवति हि स्फुटं | मोहावोहि विरहिया निर्मोहशुद्धात्मतत्त्वप्रच्छादकममका राहङ्कारोत्पादन समर्थ मोहादिविरहितत्वाद्यतः तम्हा सा खाइयत्तिमदा तस्मात् सा यद्यप्योदयिकी तथापि निर्विकारशुद्धात्मतत्त्वस्य विक्रियामकुर्वती सती क्षायिकी मता । अत्राह शिष्यः -- ' औयिका भावाः बन्धकारणम्' इत्यागमवचनं तहि वृथा भवति । परिहारमा - औदयिका भावा बन्धकारणं भवन्ति परं किन्तु मोहोदनसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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