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________________ १.४ ] [ पवयणसारो सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तहिं संसारिणां सर्वदेव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात्सर्वदेव बन्ध एवं न मोक्ष इत्यभिप्रायः ।।४५।। उत्थानिका-आगे पहले जो कह चुके हैं कि रागादि-रहित कर्मों का उदय तथा विहार आदि नियाबंध का कारण नहीं होती है, उस ही अर्थ को और भी दूसरे प्रकार से दढ़ करते हैं। अथवा यह बताते हैं कि अरहंतों के पुण्य कर्म का उदय बन्ध का कारण नहीं है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(अरहता) तीर्थकरस्वरूप अरहंत भगवान् (पुण्णफला) पुण्य के फलस्वरूप हैं--अर्थात् पंच महाकल्याणक की पूजा को उत्पन्न करने वाला तथा तीन लोक को जीतने वाला जो तीर्थकर नाम पुण्यकर्म उसके फलस्वरूप अहंत तीर्थकर होते हैं। (पुणो) तथा (तेसि) उन अरहतों की (किरिया) क्रिया अर्थात दिव्य-ध्वनि रूप वचन का व्यापार तथा विहार आदि शरीर का व्यापार रुए क्रिया दि) प्रगट रूप से (ओदइया) औवयिक है अर्थात् क्रिया रहित जो शुद्ध आत्मतत्व उससे विपरीत को कर्म उसके उदय से हुई है। (सा) वह क्रिया (मोहादोहिं) मोहादिकों से अर्थात् मोह रहित शुद्ध आत्मत्तत्व के रोकने वाले तथा ममकार अहंकार के पैदा करने को समर्थ मोह आदि से (विरहिया) रहित है (तम्हा) इसलिये (खाइय त्ति) क्षायिक है अर्थात् विकार रहित शुद्ध आत्मतत्व के भीतर कोई विकार को न करती हुई क्षायिक ऐसी (मदा) मानी यहाँ पर शिष्य ने प्रश्न किया कि जब आप कहते हैं कि कर्मों के उदय से क्रिया होकर भी क्षायिक है अर्थात् क्षय रूप है, नवीन बन्ध नहीं करती तब क्या जो आगम का वचन है कि "औदयिकाः भावाः बन्धकारणम्' अर्थात् औदयिक भाव बन्ध के कारण हैं, वृया हो जायेगा ? इस शंका का समाधान आचार्य करते हैं कि औदयिक भाव बन्ध के कारण होते हैं, यह बात ठीक है परन्तु वे बन्ध के कारण तब ही होते हैं जब वे मोह भाव के उदय सहित होते हैं। कदाचित् किसी जीव के द्रव्य मोह कर्म सम्यक्त्वप्रकृति का उदय हो तथापि जो वह शुद्ध आत्मा की भावना के बल से मोह रूप अर्थात् मिथ्यात्व रूप भाव न परिणमन करे तो बन्ध नहीं होवे और यहाँ अहंतों के तो द्रव्यमोह का सर्वथा अभाव ही है । यदि माना जाय कि कर्मों के उदय मात्र से बन्ध हो जाता है तब तो संसारी जीवों के सदा ही कर्मों के उदय से सदा ही बन्ध रहेगा कभी भी मोक्ष न होगा । तो ऐसा कभी नहीं हो सकता इसलिये मोह के उदय के बिना क्रियाबन्ध नहीं करती किन्तु जिस
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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