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________________ २८४ ] { पवयणसारो टीका-~-वास्तव में सभी वस्तु के सामान्यविशेषात्मकपना होने से, वस्तु के स्वरूप को देखने वालों के क्रमशः (१) सामान्य और (२) विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं(१) द्रव्याधिक और (२) पर्यायाथिक । इनमें से पर्यायाधिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब नारकत्व, तिर्यचत्य, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व-पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीवसामान्य को देखने वाले जीवों के वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है । जब, द्रव्याथिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, मात्र खुली हई पर्यायार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है, उस समय जीव द्रव्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्य चत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप अनेक विशेषों को देखने वाले और सामान्य को न देखने वाले जीवों के (वह जीव द्रव्य) अन्य-अन्य भासित होता है, क्योंकि द्रव्य का उन-उन विशेषों के समय में उन-उन विशेषों से तन्मयपने से अनन्यपना है। उपले, घास, पत्ते और काष्ठमय अग्नि की भांति । (जसे घास, लकड़ी इत्यादि की अग्नि उस-उस समय घासमय, लकड़ीमय इत्यादि होने से घास लकड़ी इत्यादि से अनन्य है, उसी प्रकार द्रव्य उन-उन पर्याय रूप विशेषों के समय तन्मय होने से उनसे अनन्य है, पृथक नहीं है।) जब, उन द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दोनों आंखों को एक ही काल में खोलकर, उसके और इसके (अर्थात् द्रव्याथिक तथा पर्यायाथिक चक्षु के) द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तियंचत्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायों में रहने वाला जीव सामान्य तथा जीव सामान्य में रहने वाले नारकत्व, तिर्यवत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्याय स्वरूप विशेष एक काल में ही (एक ही साथ) दिखाई देते हैं। वहां एक आंख से देखना एक देश अवलोकन है और दोनों आंखों से देखना सर्वावलोकन (सम्पूर्ण अवलोकन) है । इसलिये सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व और अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते ॥११४॥ तात्पर्यवृत्ति अर्थकद्रव्यस्य पर्यायस्सहानन्यत्वाभिधानमेकत्वमन्यत्वाभिधानमनेकत्वं च नयविभागेन दर्शयति, अथवा पूर्वोक्तसद्भावनिबद्धासद्भावमुत्पादद्वयं प्रकारान्तरेण समर्थयति हवदि भवति । कि कर्तृ ? सम्वं दवं सर्व विवक्षिताविवक्षितजीवद्रव्यं । किविशिष्टं भवति ? अणण्णं अनन्यमभिन्नमेकं तन्मयमिति 1 केन सह ? तेन नारकतिर्यड्मनुष्यदेवरूपविभावपर्यायसमूहेन केवलज्ञानाद्यनन्त चतुष्टयशक्तिरूपसिद्धपर्यायेण च । केन कृत्वा ? दयाट्ठियेण शुद्धान्वयद्रव्याथिकनयेन । कस्मात्? कुण्डलादिपर्यायेषु सुवर्णस्येव भेदाभावात् तं पज्जयट्ठियेण पुणो तद्रव्यं पर्यायाथिकनयेन पुनः
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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