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________________ पवयणसारो ] [ २८५ क्षणं अन्यद्भिन्नमनेकं पर्यायैः सह पृथग्भवति । कस्मादिति चेत् ? तक्काले सम्मयतादी तृणाग्निकाष्ठानिपत्राग्निवत् स्वकीय पर्यायैः सह तत्काले तन्मयत्वादिति । एतावता किमुत्रतं भवति ? द्रव्याचिकनयेन यथा वस्तुपरीक्षा क्रियते तदा पर्याय सन्तानरूपेण सर्वपर्यायिकदम्बकं द्रव्यमेव प्रतिभाति । यदा तु पर्यायनमविवक्षा क्रियते तदा द्रव्यमपि पर्यायरूपेण भिन्न भिन्न प्रतिभाति । यदा च परस्पर सापेक्षया नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदेकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति । यथेदं जीवद्रध्ये व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासम्भवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ।। ११४ ।। एवं सदुत्पादकथनेन प्रथमा सदुत्पादविशेषविवरण रूपेण द्वितीया तथैवासदुत्पादविशेषविवरणपेण तृतीया द्रव्यपर्याययोरेकत्वानेकत्वप्रतिपादनेन चतुर्थीति सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानमुख्यतया गाथा चतुष्टयेन सप्तमस्थलं गतम् । - उत्erfeet — आगे एक द्रव्य का अपनी पर्यायों के साथ अनन्यत्व नाम का एकत्व है तथा अन्यत्व नाम का है ऐसा नयों को अपेक्षा दिखलाते हैं । अथवा पूर्व में कहे गए सद्भावउत्पाद और असद्भाव उत्पाद को एक साथ अन्य प्रकार से दिखाते हैं— अन्वय सहित विशेषार्थ - ( दन्नट्ठियेण ) द्रव्यार्थिकनय से ( तं सव्वं ) वह सब (ब) तथ्य ( अणणं) अन्य नहीं है, वही है ( पुणो ) परन्तु (पज्जयट्ठियेण ) पर्यायार्थिक भय से ( अरणं य) अन्य मी (हवदि) है क्योंकि ( तवकाले तम्मयत्तादो) उस काल में द्रव्य स्वामी पर्याय से सम्मय हो रहा है। शुद्ध अन्वयरूप द्रव्याथिकनय से यदि विचार किया तो विवक्षित अविवक्षित सर्व हो जीव नामा द्रव्य अपनी नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव विवाद पर्यायों के साथ तथा केवलज्ञान दर्शन सुख योर्य रूप अनन्त चतुष्टयशक्ति सिद्ध पर्याय के साथ अन्य अन्य नहीं है किन्तु तन्मय है एक है । जैसे कुण्डल कंकण यदि पर्यायों में सुवर्ण का भेद नहीं है । वही सुवर्ण है । तैयार किया जाये तो अपनी अनेक पर्यायों अग्नि परन्तु यदि पर्याय को अपेक्षा से के साथ वह द्रव्य भिन्न-भिन्न ही है, क्योंकि अमि तृण की अग्नि, काष्ठ की पत्र को अग्नि रूप से भिन्न-भिन्न है, अपनी दियों के साथ उस समय तन्मय है। इससे यह बात कही गई कि जब द्रव्याथिकनय स्तु की परीक्षा की जाती है तब पर्यायों में सन्तान रूप से सब पर्यायों का समूह द्रव्य गट होता है । परन्तु जब पर्यायार्थिकनय की विवक्षा की जाती है तब पर्याय रूप वही ब्रम्य भिन्न-भिन्न झलकता है । और जब परस्पर अपेक्षा से दोनों नयों के द्वारा एक काल में विचार किया जाता है तब यह द्रव्य एक ही साथ एक रूप और अनेक रूप मालूम है। जैसे यहां जीव द्रव्य के सम्बन्ध में व्याख्यान किया गया है तंसे सब द्रव्यों के सम्म जान लेना चाहिये, यह अर्थ है ॥११४॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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