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________________ २२ ] [ पवयणसारो परिणामस्य शून्यत्वप्रसङ्गात् । वस्तु पुनरूद्ध्वंतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभाविविशेषलक्षणेषु गुणेषु क्रममातिविशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादव्ययधोन्यमयास्तित्वेन निर्वतितं निर्वृत्तिमच्च । अतः परिणामस्वभावमेव ॥१०॥ भूमिका-अम परिणाम को वस्तु स्वभाव से निश्चय करते हैंअन्वयार्थ-[इह्] लोक में [परिणामं बिनापरिणाम के बिना | अर्थः नास्ति ] पदार्थ नहीं है और [अर्थ विना | पदार्थ के बिना [परिणामः] परिणाम [नास्ति नहीं है [ द्रव्यगुणपर्ययस्थः । द्रव्य, गुण व पर्याय में रहने वाला [अर्थः | पदार्थ [अस्तित्वनिवृत्तः] (उत्पाद-त्यय-धोध्य स्वरूप) अस्तित्व से बना हुआ है। टीका--निश्चय से परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती। अर्थात् परिणाम के बिना आश्रय नहीं लेती है, उसका सद्भाव सम्भव द्रव्यादि के द्वारा होने वाले (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव द्वारा अथवा द्रव्य-गुण-पर्याय द्वारा अथवा उत्पाव-व्ययचौव्य द्वारा होने वाले) परिणाम से भिन्न प्राप्ति का अभाव है। क्योंकि (१) परिणामरहित वस्तु की गधे के सींग से समानता है (अर्थात् परिणाम-रहित वस्तु का गधे के सींग के समान अभाव है।) (२) तथा उस वस्तु का, दिखाई देने वाले गोरस इत्यादि (दूध दही आदि) परिणामों के साथ, विरोध आता है। वस्तु के बिना परिणाम भी अस्तित्व को धारण नहीं करता, क्योंकि स्वाश्रय-भूत वस्तु के अभाव में निराश्रयपरिणाम की शन्यता का प्रसंग आता है। वस्तु तो ऊर्यता-सामान्य-स्वरूप द्रव्य में, सहभावी (साथ-साथ रहने वाले) विशेष (भिन्न-भिन्न) स्वरूप वाले गुणों में तथा क्रमभावी (क्रमशः एक के बाद एक होने वाले) विशेष ( भिन्न-भिन्न) स्वरूप पर्यायों में व्यवस्थित है अर्थात् रहने वाली है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है। इसलिये वस्तु परिणाम स्वभाव-वाली परिणाम के माने-विना वस्तु सत्ता का सहारा नहीं लेती-उसके बिना वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि द्रव्यादि स्वरूप से वस्तु का ही परिणाम होता है, जिससे कि वह (वस्तु) कभी भिन्न नहीं उपलब्ध होती-सर्वदा उस परिणाम-मय ही वह उपलब्ध होती है। इस प्रकार जब दोनों में अभेद है, तब परिणाम के बिना उस वस्तु की कल्पना गधे के सींग के समान ही ठहरती है। इसके अतिरिक्त देसी अवस्था में लोक में जो दुध का परिणाम वही व घत आदि रूप देखा जाता है उसका भी विरोध अनिवार्य होगा। इसी प्रकार वस्तु के माने बिना केवल परिणाम का भी अस्तित्व नहीं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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