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________________ ४१० ] [ पबयणसारो शुद्ध जीव के व्याख्यान की गाथा एक है, “मुत्तो रूवादि' इत्यादि पूर्वपक्ष व उसके परिहार की मुख्यता से दो गाथाएं हैं, ऐसे पहले स्थल में तीन गाथाएं हैं। फिर भावबंध की मुख्यता से "उवओगमओ' इत्यादि दो गाथाएं हैं। आगे परस्पर दोनों पुदगलों का बन्ध होता है, जीव का रागादि परिणाम के साथ बन्ध है और जीव पुद्गलों का बन्ध है ऐसे तीन प्रकार बंध की मुख्यता से "फासहि पुरंगलाणं" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर निश्चय से द्रव्यबन्ध का कारण होने से रागादि परिणाम ही बंध है ऐसा कहते हुए "रत्तो बन्धदि" इत्यादि तीन गाथाणं है । आगे भेदभावना की मुख्यता से "मणिदा पुढवी'' इत्यादि दो सूत्र है। फिर यह जीव रागादि भावों का ही कर्ता है, द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है ऐसा कहते हुए "कुव्वं सहावमादा" ऐसे छठे स्थल में गाथाए सात है। जहां मुख्यपना शब्द कहा है वहां यथासंभव और भी अर्थ मिलता है ऐसा भाव सर्व ठिकाने जानना योग्य है । इस तरह उन्नीस गाथाओं से तीसरे विशेष अंतर अधिकार में समुदायपातनिका है। ___ अथ किं तहि जीवस्य शरीरादिसर्वपरद्रव्यविभागसाधनमसाधारणं स्वलक्षणमि त्यावेदयति अरसमरूवमगंधं अन्वत्तं चेदणागुणमसई । जाण अलिंगग्गहणं जोवाणद्दिसंठाणं ॥१७२।। _अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीह्यलिङ्गनणं जीवम निर्दिष्टसंस्थानम् ।। १७२।। आत्मनो हि रसरूपगन्धगुणाभावस्वभावत्वात्स्पर्शगुणव्यत्त्यमावस्वभावत्वात् शब्दपर्यायामावस्वभावत्वात्तथा तन्मूलालिङ्गग्राह्यत्वात्सर्वसंस्थानाभावस्वभात्वाच्च पुद्गलद्रव्य विभागसाधनमरसत्वमरूपत्वमगन्धत्वमध्यक्तत्वमशब्दत्वमलिग्राह्यत्वमसंस्थानत्वं चास्ति । सकलपुद्गलापुद्गलाजीवद्रव्य विभागसाधनं तु चेतनागुणत्यमस्ति । तदेव च तस्य स्वजीवद्रध्यमात्राश्रितत्वेन स्वलक्षणतां बभ्राणं शेषद्रव्यान्तरविभागं साधयति अलिङ्गग्राह्य इति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तदबहुतराथंप्रतिपत्तये तथाहि न लिगरिन्द्रियाहकतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः। न लिगरिन्द्रियग्राह्यतामापन्नस्य ग्रहणं यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षाविषयत्वस्य । न लिंगादिन्द्रियगम्याळूमादग्नेरिय ग्रहण यस्पेतीन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयत्वस्य । न लिंगादेव परः ग्रहणं यस्येत्यनुमेयमात्रत्वाभावस्य । न लिंगादेव परेषां ग्रहणं यस्येत्यनुमातृमात्रत्वाभावस्य । न लिंगात्स्वभावेन ग्रहणं यस्येति प्रत्यक्षातत्वस्य । न लिंगेनोपयोगाख्यलक्षणेन ग्रहणं ज्ञेयार्थालम्बनं यस्येति बहिरालम्बनशानाभावस्य । न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं स्वयमाहरण यस्येत्य
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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