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________________ पत्रयणसारो ] [ ४११. नाहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं परेण हरणं यस्येत्याहार्यज्ञानत्वस्य । न लिंगे उपयोगाख्यलक्षणे ग्रहणं सूर्य इवोपरागो यस्येति शुद्धोपयोगस्वभावस्य । न लिंगानुपयोगाख्यलक्षणाद्ग्रहणं पौगलिककर्मादानं यस्येति द्रव्यकर्मासम्पृक्तत्वस्य न लिंगेभ्य इन्द्रियेभ्यो ग्रहणं विषयाणामुपभोगो यस्येति विषयोपभोक्तृत्वाभावस्य । न लिंगात्मनो वेन्द्रियादिलक्षणाद्ग्रहणं जीवस्य धारणं यस्येति शुक्रार्तवानुविधायित्वाभावस्य । न लिंगस्य मेहनाकारस्य ग्रहणं यस्येति लौकिकसाधनमात्रत्वा भावस्य । न लिंगेना मेहनाकारेण न लिंगानां ग्रहणं लोकव्याप्तिर्यस्येति कुहुकप्रसिद्धसाधनाकारलोकव्याप्तित्वाभावस्य स्त्रीपुन्नपुंसक वेदानां ग्रहणं यस्येति स्त्रीपुन्नपुंसकद्रव्यभावाभावस्य । न लिंगानां धर्मध्वजानां ग्रहणं यस्येति बहिरङ्गयतिलिंगाभावस्य । न लिंग गुणो ग्रहणमर्थावबोधो यस्येति गुणविशेषानाली ढशुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिंगं पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधविशेषो यस्येति पर्यायविशेषानालीढशुद्धद्रव्यत्वस्य । न लिंगं प्रत्यभिज्ञानहेतुर्ग्रहणमर्थावबोधसामान्यं यस्येति द्रव्याना लीशुद्ध पर्यायत्वस्य ॥ १७२ ॥ भूमिका- अब फिर जीव का, शरीरादि सर्वपरद्रव्यों से विभाग का साधनभूत, असाधारण स्वलक्षण क्या है, सो कहते हैं अन्वयार्थं ---- [जीवम् ] जीव को [ अरसम् ] रसरहित, [अरूपम् ] रूप रहित, [अगं - धम् [ गन्धरहित, [अव्यक्तम् ] अव्यक्त, [ चेतनागुणम् ] चेतनागुणयुक्त, [अशब्दम् ] शब्द रहित, [ अलिगग्रहणम् ] लिंग द्वारा ग्रहण न होने योग्य और [ अनिर्दिष्टसंस्थानम् ] जिसका कोई संस्थान नहीं कहा गया है, ऐसा [ जानीहि ] जानो । टीका- आत्मा (१) रसगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (२) रूपगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (३) गंधगुण के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (४) स्पर्शगुणरूप व्यक्तता के अभावरूप स्वभाव वाला होने से, (५) शब्दपर्याय के अभावरूप स्वभाव वाला होने से तथा ( ६ ) इन सबके कारण ( अर्थात् रस-रूप-गंध इत्यादि के अभाव रूप स्वभाव के कारण ) लिंग के द्वारा अग्राह्य होने से, और (७) सर्व संस्थानों के अभावरूप स्वभाववाला होने से, आत्मा के पुद्गलद्रव्य से विभाग के साधनभूत (१) अरसत्य, (२) अरूपत्थ, (३) अगंधत्व, ( ४ ) अव्यक्तता, ( ५ ) अशब्दत्व, (६) अलगग्राह्यत्व, और ( ७ ) असंस्थानत्य हैं । पुद्गल तथा अपुद्गलरूप समस्त अजीव द्रव्यों से विभाग का साधन तो चेतनागुणमयत्व है । वही, मात्र स्वजीवद्रव्याश्रित होने से स्वलक्षणत्व को धारण करता हुआ, आत्मा का शेष द्रव्यों से विभाग ( भेद ) सिद्ध करता है ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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