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________________ ४१२ 1 [ पवयणसारो जहां 'अलिगग्राह्य' कहना है वहां जो 'अलिनग्रहण' कहा है, वह बहुत से अर्थों को प्रतिपत्ति ( प्राप्ति, प्रतिपादन ) करने के लिये है । वह इस प्रकार है- ( १ ) ग्राहक (ज्ञायक ) जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा (ज्ञान) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है । ( २ ) ग्राह्य (ज्ञेय), जिसका लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण (जानना) नहीं होता वह अग्रण है, इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्ष का विषय नहीं है, इस अर्थ को प्राप्ति होती है । (३) जैसे- धुयें से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इन्द्रियगम्य (इन्द्रियों से जानने योग्य) चिह्न द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है । इस प्रकार 'आत्मा इन्द्रिय प्रत्यक्षपूर्वक अनुमान का विषय नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । (४) दूसरों के द्वारा — मात्र लिंग से ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह ग्रहण है इस प्रकार 'आत्मा अनुमेय मात्र ( केवल अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य) नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ५ ) जिसके लिंग से ही परका ग्रहण नहीं होता यह अलिगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा अनुमाता मात्र ( केवल अनुमान करने वाला ही नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ६ ) जिसका लिंग के द्वारा नहीं किन्तु स्वभाव के द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ७ ) जिसका लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बन वाला ज्ञान नहीं हैं' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ८ ) जो लिंग को अर्थात् उपयोग नामक लक्षण को ग्रहण नहीं करता, अर्थात् स्वयं (कहीं बाहर से) नहीं लाता, सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा जो कहीं से नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञान वाला है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । ( ६ ) लिंग का अर्थात् उपयोग नामक लक्षण का ग्रहण अर्थात् पर से हरण नहीं हो सकता, सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा का ज्ञान हरण नहीं किया था [सकता' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । (१०) जिस लिंग में अर्थात् उपयोग नामक लक्षण में ग्रहण अर्थात् सूर्य की भांति उपराग ( मलिनता, विकार) नहीं है वह अग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा शुद्धोपयोग स्वभावी है, ऐसे अर्थ को प्राप्ति होती है । (११) लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा अर्थात् पौद्गलिक फर्मका ग्रहण जिसके नहीं है, वह अलिगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा द्रव्यकर्म से असंयुक्त (असंबद्ध) है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है । (१२) जिसे लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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