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पवयणसारो ]
[ ४१३ अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है। ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१३) लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षण के द्वारा ग्रहण अर्थात जीवत्व को धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इसप्रकार 'आत्मा शुक्र और रज के अनुसार होने वाला नहीं है' ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१४) लिंग का अर्थात मेहनाकार (पुरुषादिकी इन्द्रिय का आकार) का ग्रहण जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार आत्मा लौकिक साधन मात्र नहीं है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१५) लिंग के द्वारा अर्थात् अमेहनाकार के द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोक में व्यापकत्व नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा पाखण्डियों के प्रसिद्ध साधन हर भागार नाना- लोभाप्तिमारा नहीं है। ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१६) जिसके लिंगों का, अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इसप्रकार 'आत्मा द्रध्य से तथा भाव से स्त्री, पुरुष तथा नपुंसक नहीं है' इस अर्थ की प्राप्ति होती है। (१७) लिंगों का अर्थात् धर्मचिह्नों का ग्रहण जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव है। इस अर्थ की प्राप्ति होती है। (१८) लिंग अर्थात् गुणरूप ग्रहण अर्थात अर्थाधबोध (पदार्थज्ञान) जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आस्मा गुणविशेष से आलिंगित न होने वाला शुद्ध द्रव्य है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। (१६) लिंग अर्थात् पर्यायरूप ग्रहण, अर्थात अर्थायबोध विशेष जिसके नहीं है सो अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा पर्याय-विशेष से अलिंगित न होने वाला शुद्ध द्रव्य हैं ऐसे अर्थ को प्राप्ति होती है । (२०) लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारणरूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार 'आत्मा द्रव्य से नहीं अलि गित ऐसी शुद्ध पर्याय हैं ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ॥१७२।।
तात्पर्यवृत्ति अथ कि तहि जीवस्य शरीरादिपरद्रव्येभ्यो भिन्नमन्यद्रव्यासाधारणं स्वस्वरूपमिति ? प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति--
अरसमरूषमगंध रसरूपगन्धरहितत्वात्तथा चाव्याहार्यमाणास्पर्शरूपगन्धत्वाच्च अव्यत्तं अव्यक्तत्वात् असई अशब्दत्वात् अलिंगरगहणं अलिङ्गहणत्वात् अणिद्दिसंठाणं अनिर्दिष्टसंस्थानत्वाच्च जाण जीयं जानीहि जीवम् । अरसमरूपमगन्धमस्पर्शमध्यक्तमशब्दमलिङ्गग्रहणमनिर्दिष्टसंस्थानलक्षणं च हे शिष्य ! जीवं जीवद्रव्यं जानीहि । पुनरपि कथंभूतं ? चेवणागुणं समस्तपुद्गलादिभ्योऽचेतनेभ्यो भिन्नः समस्तान्यद्रव्यासाधारणः स्वकीयानन्तजीवजातिसाधारणश्त्र चेतना गुणो यस्य तं चंतनागुणं