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________________ ४१४ ] [ पवयणसारो चालिङ्गमाद्यमिति वक्तव्ये यदलिङ्गग्रहणमित्युक्तं तत्किमर्थमिति चेत् ? बहुतरार्थप्रतिपत्त्यर्थम् । तथाहि लिङ्गमिन्द्रियं तेनार्थानां ग्रहणं परिच्छेदनं न करोति तेनालिनग्रहणो भवति । तदपि कस्मात्स्वयमेवातीन्द्रियाखण्डज्ञानसहितत्वात् । तेनैव लिङ्गशब्दवाच्येन चक्षुरादीन्द्रियेणान्यजीवानां यस्य ग्रहणं परिच्छेदनं कर्तुं नायाति तेनालिङ्गग्रहण उच्यते । तदपि कस्मात् ? निविकारातीन्द्रियस्वसंवेदनप्रत्यक्षज्ञानगम्यत्वात् । लिङ्ग धूमादि तेन धूमलिङ्गोद्भवानुमानेनाग्निवदनुमेयभूतपरपदार्थानां ग्रहणं न करोति तनालिङ्गाग्रा इति । तदाप कस्मात् ? स्वमेवालिङ्गोद्भवातीन्द्रियज्ञानसहितत्वात् । तेनैव लिङ्गोद्भवानुमानेनाग्निग्रह्णवत् परपुरुषाणां यस्यात्मनो ग्रहणं परिज्ञानं कर्तुं नायाति तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि कस्मात् ! अलिङ्गोद्भवातीन्द्रियज्ञानगम्यत्वात् । अथवा लिङ्ग चिह्न लाञ्छनं शिखाजटाधारणादि तेनार्थानां ग्रह्ण परिच्छेदनं न करोति, तेनालिङ्गग्रहण इति । तदपि कस्मात् ? स्वाभाविकाचिह्नोद्भवातीन्द्रियज्ञानसहितत्वात् । तेनैव चिह्नोद्भवज्ञानेन परपुरुषाणां यस्यात्मनो ग्रहणं परिज्ञानं कर्तृ नायाति तेनालिङ्गग्रहण इति। तदपि कस्माग्निरुपरागस्वसंवेदनज्ञानगम्यत्वादिति । एवमलिङ्गग्रहणशब्दस्य व्याख्याननमेण शुद्धजीवस्वरूप ज्ञातव्यमित्यभिप्रायः ॥१७२।। __उत्थानिका-ऐसा प्रश्न होने पर कि इस जीव का शरीरादि पर द्रव्यों से भिन्न, अन्य द्रव्यों से असाधारण अपना स्वरूप क्या है ? आचार्य उत्तर देते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीव) इस जीव को (अरस) पांच रस से रहित (अरुवम्) पांच वर्ण से रहित (अपंध) दो गंध से रहित तथा इन्हों के साथ आठ प्रकार स्पर्श से रहित, (अश्वत्तं) अव्यक्त (असई) शब्द रहित, (अलिंगगहणं) किसी चिन्ह से न पकड़ने योग्य (अणिद्दिसंठाणं) नियमित आकार रहित (चेवणागुणं) सर्व पुद्गलादि अचेतन द्रव्यों से भिन्न और समस्त अन्य द्रव्यों से विशेष तथा अपने ही अनन्त जीव जाति में साधारण ऐसे चैतन्य गुण को रखने वाला (जाण) जानो। अलिंगग्रहण जो विशेषण दिया है उसके बहुत से अर्थ होते हैं वे यहां समझाए जाते हैं। (१) लिंग इन्द्रियों को कहते हैं। उनके द्वारा यह मात्मा पदार्थों को निश्चय से नहीं जानता है क्योंकि आत्मा स्वभाव से अपने अतीन्द्रिय अखण्डज्ञान सहित है इसलिये अलिंगग्रहण है। (२) लिंग शब्द से चक्षु आदि इन्द्रिय लेना, इन चक्षु आदि से अन्य जीव भी इस आत्मा का ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि यह आत्मा विकार रहित अतीन्द्रिय स्वसंवेदन प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा ही अनुभव में आता है इसलिये भी अलिंगग्रहण है । (३) धूम आदि को चिन्ह कहते हैं जैसे धुएं के चिन्ह रूप अनुमान से अग्नि का ज्ञान करते हैं ऐसे यह आत्मा जानने योग्य पर पदार्थों को नहीं जानता क्योंकि स्वयं ही चिन्ह या अनुमान रहित प्रत्यक्ष अतीन्द्रियज्ञान को रखने वाला है उसे ही जानता है, इसलिये भी लिंगग्रहण है। (४) कोई भी अन्य पुरुष जैसे धूम के चिन्ह से अग्नि का ग्रहण
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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