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________________ पवयणसारो ] [ ४०६ तात्पर्यवृत्ति अथ शरीराणि जीवस्वरूपं न भवन्तीति निश्चिनोति ओरालियो य देहो औदारिकश्च देहः देहो वेउटिवयो य देहो बैब्रिायिकश्च तेजइओ तेजसिक: आहारय कम्मइयो आहारकः कार्मणश्च पुग्गलदव्यपगा सटवे एते पञ्च देहाः पुद्गलद्रव्यात्मकाः सर्वेपि मम स्वरूपं न भवन्ति । कस्मादिति चेत् ? ममाशरीरचैतन्यचमत्कारपरिणतत्वेन सर्वदेवाचेतनशरीरत्दविरोधादिति ॥१७॥ एवं पुद्गलस्कन्धानां बन्धव्याख्यानमुख्यतया द्वितीयस्थले गाथापञ्चकं गतम् इति । "अपदेसो परमाणु" इत्यादि गमावला परमापद कन्धभेनधिमपन्दगलानां पिण्डनिष्पत्तिध्याख्यानमुख्यतया 'द्वितीयविशेषान्तराधिकार:' समाप्तः ।। अर्थकोनविंशतिगाथापर्यन्तं जीवस्य पुद्गलेन सह बन्धमुख्यतया व्याख्यानं करोति, तत्र षट्स्थलानि भवन्ति । तेष्वादी "अरसमहवं" इत्यादि शुद्धजीवव्याख्यानगार्थका "मुत्तो रूवादि" इत्यादिपूर्वपक्षपरिहारमुख्यतया गाथायमिति प्रथमस्थले गाथात्रयम् । तदनन्तरं 'भावबन्धमुख्यत्वेन "उवओगमओं" इत्यादि गाथाद्वयम् । अथ परस्परं द्वयोः पुद्गलयोः बन्धो जीवस्य रागादिपरिणामेन सह बन्धो जीवपुद्गलयोर्बन्धश्चेति त्रिविधबन्धमुख्यत्वेन "फासेहि पुग्गलाणं" इत्यादि सूत्रद्वयम् । ततः पर निश्चयेन द्रव्यबन्धकारणत्वाद्रागादिपरिणाम एव बन्ध इति कथनमुख्यतया "रत्तो बंधदि" इत्यादि गाथात्रयम् 1 अथ भेदभावनामुख्यत्वेन "भणिदा पुढयो" इत्यादि सूत्रद्वयम् । तदनन्तरं जीवो रागादिपरिणामानामेव कर्त्ता न च द्रव्यकर्मणामिति कथनमुख्यत्वेन "कुटवं सहावमादा" इत्यादि पष्ठस्थले गाथासप्तकम् । यत्र मुख्यत्वमिति वदति तत्र यथासम्भवमन्योऽप्यर्थों लभ्यत इति सर्वत्र ज्ञातव्यः 1 एवमेकोनविंशतिगाथाभिस्तृतीयविशेषान्तराधिकारे समुदायपातनिका । उत्थानिका---आगे कहते हैं कि पांचों ही शरीर जीव स्वरूप नहीं हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(ओरालिओ देहो) औवारिक शरीर (य) और (देउविओ) क्रियिक देह (य तेजइओ) और तेजसशरीर (आहारय, कम्मइयो) आहारकशरीर और कार्मणशरीर ये (सम्वे) सब पौधों शरीर (पुग्गलदव्वप्पणा) पुद्गल द्रव्यमयी हैं। ये शरीर पुद्गल द्रव्य के बने हुए हैं इसलिये मेरे आत्मस्वरूप से भिन्न हैं, क्योंकि मैं शरीररहित चैतन्य चमत्कार की परिणति में परिणमन करने वाला है, मेरा सदा ही भचेतन शरीरपने से विरोध है ॥१७१ ॥ इस तरह पुद्गल स्कंधों के बन्ध के व्याख्यान को मुख्यता से दूसरे स्थल में पांच गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह "अपदेसो परमाणू" इत्यादि ६ गाथाओं से परमाणू और स्कंध भेद को रखने वाले पुद्गलों के पिंड बनने के व्याख्यान की मुख्यता से दूसरा विशेष अन्तरअधिकार पूर्ण हुआ। आगे उन्नीस गाथा पर्यंत 'जीव का युद्गल के साथ बंध है,' इस मुख्यता से व्याख्यान करते हैं । इसमें छः स्थल हैं। इनमें से आदि के स्थल में "अरसमरूबं" इत्यादि
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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