SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४०८ ] [ पवयणसारो स्कन्धाः पुणो वि जीवस्स पुनरपि भवान्तरेऽपि जीवस्य संजायते वेहा संजायन्ते सम्यग्जायन्ते देहाः शरीराणीति । किं कृत्वा ? बेहतरसंकर्म पप्पा देहान्तरसंक्रमं भवान्तरं प्राप्य लब्ध्वेति । अनेन किमुक्तं भवति-औदारिकादिशरीरनामकर्मरहितपरमात्मानमलभमानेन जीवेन यान्युपाजितान्योदारिकादिशरीरनामकर्माणि तानि भवान्तरे प्राप्ते सत्युदयमागच्छन्ति तदुदयेन नोकर्मपुद्गला औदारिकादिशरीराकारेण स्वयमेव परिणमन्ति। ततः कारणादौदारिकादिकायानां जीवः कर्ता न भवतीति ।।१७०॥ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि शरीर के आकार परिणत होने वाले पुद्गल के पिंडों का भी जीव उपादान कर्ता नहीं है-- अन्वय सहित विशेषार्थ-(ते ते) वे वे पूर्व बाँधे हुए (कम्मत्तगदा) द्रध्यकर्म पर्याय में परिणमन किये हुए (पुग्गलकाया) पुद्गल कर्मवर्गणास्फंध (पुणो वि) फिर भी जीव)ीय के वहशरसंकमा सय भव को (पप्पा) प्राप्त होने पर (देहा) शरीर (संजायंते) उत्पन्न होते हैं । औदारिक आदि शरीर नामा नामकर्म से रहित परमात्मस्त्रभाव को न प्राप्त किये हुए जीव ने जो औदारिक शरीर आदि नामकर्म बांधे हैं उस जीव के अन्य भव में जाने पर वे ही कर्म उदय आते हैं। उनके उदय के निमित्त से नोकर्म वर्गणाएं औदारिक आदि शरीर के आकार स्वयमेव परिणमन करती हैं इससे यह सिद्ध है कि औदारिक आदि शरीरों का भी जीव कर्ता नहीं है ॥१७॥ अथात्मनः शरीरत्वाभावमवधारयति ओरालियो य देहो वेउविओ' य तेजइओ। आहारय कम्मइओ पुग्गलवम्वप्पगा सव्वे ॥१७१॥ औदारिकश्च देहो देहो वैक्रियिकश्च तंजसिकः । आहारकः कार्मणः पुद्गलद्रव्यात्मकाः सर्वे ।। १७१।। यतो ह्यौदारिकर्वक्रियिकाहारकतंजसकार्मणानि शरीराणि सर्वाण्यपि पुद्गलद्रव्यास्मकानि । ततोऽवधार्यते न शरीरं पुरुषोऽस्ति ।।१७१।। भूमिका-अब आत्मा के शरीरत्व का अभाव निश्चित करते हैं अन्वयार्थ-[औदारिकः च देहः] औदारिक शरीर, और [वै क्रियिकः देहः ] दैनियिकशरीर तिजसिकः] तैजसशरीर, [आहारकः] आहारकशरीर [च] और [कार्मणः] कार्मणशरीर [सर्वे] सब [पुद्गलद्रव्यात्मकाः] पुद्गलद्रव्यात्मक हैं । टीका-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, लैजस और फार्मण-सभी शरीर पुदगलद्रव्यात्मक हैं । इससे निश्चित होता है कि आत्मा शरीर नहीं है ॥ १७१॥ १. वेउदिवयो (ज० वृ०)। २, फम्मइयो (ज. वृ०) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy