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________________ पवयणसारो ] [ ३१६ टीका - यहां ( इस विश्व में ) वास्तव में, एकत्व के कारणभूत द्रव्यत्व सामान्य को छोड़े बिना ही, उसमें (द्रव्य में ) रहने वाले विशेष लक्षणों के सद्भाव के कारण एक दूसरे से पृथक्पने से, द्रव्य जोवत्व रूप और अजीवत्व रूप विशेषता को प्राप्त होता है, उसमें जीव का आत्मद्रव्य एक ही भेद है, और अजीव के पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य तथा आकाशद्रव्य यह पांच भेद है। जीव का विशेष लक्षण चेतनोपयोगमयत्व ( चेतनामयता और उपयोगमयता) है, और अजीव का अचेतनत्व है । उनमें (से) स्वधमों में व्यापकपना होने से स्वरूपपने से प्रकाशित होने वाली, अविनाशिनी, भगवती, (स्व) संवेदनरूप चेतना के द्वारा तथा चेतना परिणाम लक्षण, द्रव्य परिणति रूप उपयोग के द्वारा, जिसमें निष्पत्नत्व अवतरित प्रतिभासित होता है ( अर्थात् जो चेतना तथा उपयोग से रचा हुआ — बना हुआ है), वह जीव है जिसमें, उपयोग के साथ रहने वाली, यथोक्त (ऊपर कहे अनुसार ) लक्षण वाली चेतना का अभाव होने से बाहर तथा भोतर अचेतनत्व अवतरित प्रतिभासित होता है, वह अजीव है ॥१२७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ जीवाजीव लक्षणमावेदयति व्यं जीवमजीवं द्रव्यं जीवाजीवलक्षणं भवति जीवो पुण चेदणो जीवः पुनश्चेतनः स्वतःसिद्धया बहिरङ्गकारणनिरपेक्षया बहिरन्तश्च प्रकाशमानया नित्यरूपया निश्चयेन परमशुद्धचेतनया व्यवहारेण पुनरशुद्धचेतनया च युक्तत्वाच्चेतनो भवति । पुनरपि किविशिष्टः ? उवओगमओ उपयोगमयः अखण्डकप्रतिभासमयेन सर्वविशुद्ध न केवलज्ञानदर्शन लक्षणेनार्थ ग्रहणव्यापाररूपेण निश्चयन येनेत्थम्भूतशुद्धोपयोगेन, व्यवहारेण पुनर्मतिज्ञानाथशुद्धोपयोगेन च निर्वृतत्वान्निष्पन्नत्वादुपयोगमयः पोग्गल दखमुहं अचेदणं वदि अज्जीवं पुद्गलद्रव्यप्रमुखचेतनं भवत्यजीवद्रव्यं पुद्गलधर्माधर्माकाशकालसंज्ञं द्रव्यमंत्रकं पूर्वोक्तलक्षणचेतनाया उपयोगस्य चाभावादजीवमचेतनं भवतीत्यर्थः ।। १२७ ।। उत्थानिका -- आगे जीव और अजीव का लक्षण कहते हैं - अन्य सहित विशेषार्थ - ( दव्वं ) द्रव्य ( जीव मजीवं ) जीव और अजीव हैं ( पुणे ) और ( जीवो) जीव द्रव्य ( चेदणा उथओगमओ) चेतना स्वरूप तथा ज्ञान दर्शन उपयोगवान् हैं (य पोग्गलदश्वप्प मुहं ) और पुद्गलद्रव्य आदि ( अचेवणं ) चेतनारहित ( अजीवं ) अजीव हैं । द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव, इनमें से जीवद्रव्य स्वयं सिद्ध बाहरी और अन्तरङ्ग व बाहर में प्रकाशमान नित्य रूप निश्चय से परम शुद्धचेतना से तथा व्यवहार में अशुद्ध चेतना से युक्त होने के कारण चेतन स्वरूप है तथा निश्चयनय से अखंड व
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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