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________________ पत्रयणसारो ] [ १४९१ होगा । अथवा परिणाम के सम्बन्ध में दूसरा व्याख्यान करते हैं- एक समय में अनंत पदार्थों के ज्ञान के परिणाम में भी वीर्यान्तराय के पूर्ण क्षय होने से अनन्तवीर्य के सद्भाव से खेद का कोई कारण नहीं है । वैसे हो शुद्ध आत्मप्रदेशों में समतारस के भाव से परिणमन करने वाली तथा सहज शुद्ध आनन्दमयी एक लक्षण को रखने वाली, सुखरस के आस्वाद में रमने वाली आत्मा से अभिन्न निराकुलता के होते हुए खेद नहीं होता है । ज्ञान और सुख संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि का भेद होने पर भी निश्चय से अभेदरूप से परिणमन करता केवलज्ञान ही सुख कहा जाता । इससे यह ठहरा कि केवलज्ञान से भिन्न सुख नहीं है, इस कारण से ही केवलज्ञान में खेद का होना सम्भव नहीं है ॥६०॥ भूमिका -- अथ पुनरपि केवलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरतिणाणं अत्यंतगयं लोयालोएसु' वित्थडा बिट्ठी । णट्ठमणिट्ठ सव्वं इट्ठ पुण जं तु तं लद्धं ॥ ६१ ॥ ज्ञानमर्थान्तगतं, लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टिः । 2 नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनः यत्तु तत् लब्धम् ॥ ६१ ॥ स्वभावप्रतिघाताभाव हेतुकं हि सौख्यम् । आत्मनो हि दृशिज्ञप्ती स्वभावः तयोलोकालोक विस्तृतत्वेनार्थान्तगतत्वेन च स्वच्छन्दविजृम्भितत्वाद्भवति प्रतिघाताभावः । ततस्तद्धेतुकं सौख्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम् । किंच केवलं सौख्यमेव, सर्वानिष्टप्रहाणात् सर्वेष्टोपलम्माच्च । यतो हि केवलावस्थायां सुखप्रतिपत्तिविपक्षभूतस्य दुःखस्य साधनतामुपगतमज्ञानमखिलमेव प्रणश्यति, सुखस्य साधनीभूतं तु परिपूर्ण ज्ञानमुपजायते । ततः केवलमेव सौख्यमित्यलं प्रपञ्चेन ॥ ६१॥ भूमिका – अब, फिर भी केवलज्ञान की सुखस्वरूपता को निरूपण करते हुए उपसंहार करते हैं- अन्वयार्थ – [ ज्ञानं ] ज्ञान [ अर्थान्तगतं ] पदार्थों के पार को प्राप्त है । [ दृष्टिः ] दृष्टि (दर्शन) [ लोकालोकेषु विस्तृताः ] लोकालोक में फैली हुई है । ( इसलिये केवलज्ञान सुख स्वरूप है ) [ सर्वम् अनिष्टं ] सर्व अनिष्ट [ नष्टं] नष्ट हो चुका है। [ पुनः ] और [ यत् तु] जो [ इष्ट ] इष्ट है [ तत् ] वह सब [ लब्धं ] प्राप्त हो चुका है (इसलिये भी केवल - ज्ञान सुखस्वरूप है ) | टीका- सुख का कारण स्वभाव के प्रति घात का अभाव है। आत्मा का स्वभाव वास्तव में दर्शन ज्ञान है । (दर्शन) लोक अलोक में फैला होने से और (ज्ञान) पदार्थों के १. सोयालीयेसु (ज० वृ० ) । २. हि (ज० ० ) ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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