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________________ १४२ ] [ पश्य णसारो पार को प्राप्त होने से (दर्शन-ज्ञान के) स्वच्छन्दतापूर्वक (स्वतन्त्रतापूर्वक) विकसितपना होने के कारण से प्रतिघात का अभाव है। इसलिये स्वभाव के प्रतिघात का अमाव जिसका कारण है ऐसा सुख अभेद विवक्षा में केवलज्ञान का स्वरूप है। प्रकारान्तर से केवलज्ञान की सुखस्वरूपता बतलाते हैं-- केवलज्ञान सुख-स्वरूप ही है क्योंकि सई अनिष्ट का नाश हो चुका है और सर्व इष्ट का लाभ हो चुका है। क्योंकि वास्तव में केवल अवस्था में सुख-प्राप्ति के विपक्षभूत दुःख के साधनपने को प्राप्त अज्ञान सम्पूर्ण हो नाश हो जाता है और सुख का साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । इसलिये केवलज्ञान हो सुखस्वरूप है। अधिक विस्तार से बस है ॥६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पुनरपि केवलज्ञानस्य सुखस्वरूपता प्रकारान्तरेण दृढयति - णाणं अत्यंत गये ज्ञानं केवलज्ञानमन्तिगतं ज्ञेयान्तप्राप्त लोयालोयेसु वित्थडा विठ्ठी लोकालोकयोविस्तृता दृष्टिः केवलदर्शनं । णमणिह्र सम्बं अनिष्टं दुःखमज्ञानं च तत्सर्वं नष्ट इठ्ठं पुण जं हि त लद्धं इष्ट पुनर्यद् ज्ञानं सुखं च हि स्फुट तत्सर्व लब्धमिति । - तद्यथा-स्वभावप्रतिघाताभावहेतुक सुखं भवति । स्वभावो हि केवलज्ञानदर्शनद्वयं, तयोः प्रतिधात आवरणतयं तस्याभावः केलिनां, ततः कारणात्स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकमक्ष यानन्तसुखं भवति । यतश्च परमानन्दै कलक्षणसुख प्रतिपक्षभूतमाकुलत्वोत्पादकमनिष्टं दुखमज्ञानं च नष्ट, यतश्च पूर्वोक्तलक्षणसुखाविनाभूतं लोक्योदरविवरवर्तिसमस्तपदार्थयुगपत्प्रकाशकमिष्ट ज्ञानं च लब्ध, ततो ज्ञायते केवलिनां ज्ञानमेव सुखमित्यभिप्रायः ।। ६१॥ उत्थानिका--आगे फिर भी केवलज्ञान को सुखरूपपना अन्य प्रकार से कहते हुए इसी बात को पुष्ट करते हैं--- ___ अवन्य सहित विशेषार्थ—(णाण) केवलज्ञान (अत्यंतगयं) सर्वज्ञेयों के अंत को प्राप्त हो गया अर्थात् केवलज्ञान ने सब जान लिया (विट्ठी) केवलदर्शन (लोयालोयेसु वित्थडा) लोक और अलोक में फैल गया (सव्यं अणिठ्ठ) सर्व अनिष्ट अर्थात् अज्ञान और दुःख (गट्ठ) नष्ट हो गया (पुण) तथ (जं तु इठं तं तु लद्धं) जो कुछ इष्ट है अर्थात् पूर्ण ज्ञान तथा सुख है सो सब प्राप्त हो गया। इसका विस्तार यह है कि आत्मा के स्वभाव के घात का अभाव है सो सुख है। आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान और केवलदर्शन है। इनके घातक केवलज्ञानावरण तथा केबलदर्शनावरण हैं सो इन दोनों आवरणों का अभाव केवलज्ञानियों के होता है, इसलिये स्वभाव के घात के अमाव से होने वाला सुख होता है । क्योंकि परमानन्दमयो एक लक्षण
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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