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________________ १४० ] । पबयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथानन्तपदार्थपरिच्छेदनारकेवलज्ञानेऽपि खेदोस्तीति पूर्वपक्षे सति परिहारमाह जं केवलत्ति णाणं तं सोरखं यत्केवलमिति ज्ञानं तत्सौख्यं भवति, तस्मात् खेदो तस्स ण मणिओ तस्य केवल ज्ञानस्य खंदा दुःखं न भणितं तदपि कस्मात् ? जम्हा घाविष्खयं जावा यस्मान्मो. हादिघातिकर्माणि क्षयं गतानि । तहि तस्यानन्तपदार्थ परिच्छित्तिपरिणामो दुःखकारणं भविष्यति । नवम् । परिणमं च सो चेव तस्य केवलज्ञानस्य संबन्धी परिणामश्च स एव सुखरूप एवेति । इदानी विस्तर:-ज्ञानदर्शनावरणोदये सति युगपदन् ज्ञातुमशक्यत्वात् क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदो भवति, आवरणद्वयाभावे सति युगपद्महणे केवल ज्ञानस्य खेदो नास्तीति सुख मेव । तथैव तस्य भगवतो जगत्त्रयकालत्रयति समस्तपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिसमर्थमखण्डेकरूपं प्रत्यक्षपरिच्छित्तिमयं स्वरूपं परिणमत्सत् केवलज्ञान मेब परिणामो न च केवलज्ञानाद्मिन्न परिणामोऽस्ति येन खेदो भविष्यति । अथवा परिणामविषये द्वितीयव्याख्यानं क्रियते युगपदनन्तपदार्थपरिच्छत्तिपरिणामपि वीर्यान्तरार्यानरवशेषक्षयादनन्तवीयंत्वात् खेदकारणं नास्ति, तथैव च शुद्धात्मसर्वप्रदेशषु समरसीभावेन परिणममानानां सहजशुद्धानन्दकलक्षणसुखरसास्वादपरिणतिरूपामात्मनः सकाशादभिन्नामनाकूलता प्रति खेदो नास्ति। संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि निश्चयेनाभेदरूपेण परिणममानं केवलज्ञानमेव सुखं भण्यते । ततः स्थितमेतत्केवलज्ञानाद्भिन्नं सुखं नास्ति । तत एव केवलज्ञाने खेदो न संभवतीति 11६०॥ ___ उत्थानिका—आगे कोई शंका करता है कि ज्ञब केवलज्ञान में अनन्त पदार्थों का ज्ञान होता है तब उस ज्ञान के होने में अवश्य खेद या श्रम करना पड़ता होगा। इसलिये वह निराकुल नहीं है । इसका समाधान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(जं केवलत्ति णाणं) जो केवलज्ञान है (तं सोवख) वही सुख है (सा चेव परिणमं च) तथा केवलज्ञान सम्बन्धी परिणाम आत्मा का स्वाभाविक परिणमन है। (जम्हा) क्योंकि (घादी खयं जादा) मोहनीय आदि धातियाकर्म नष्ट हो गये (तस्स खेको ण भणिओ) इसलिये उस अनंत पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान के भीतर दुःख का कारण खेर नहीं कहा गया है। इसका विस्तार यह है कि जहां ज्ञानावरण दर्शनावरण के उदय से एक साथ पदार्थों के जानने की शक्ति नहीं होती है किन्तु क्रम-क्रम से पदार्थ जानने में आते हैं वहीं खेद होता है। दोनों दर्शन-ज्ञान आवरण के अभाव होने पर एक साथ सर्व पदार्थों को जानते हुए केवलज्ञान में कोई खेद नहीं है, किन्तु सुख हो है। तैसे ही उन केवलो भगवान् के भीतर तीन जगत् और तीन कालवर्ती सर्व पदार्थों को एक समय में जानने को समर्थ अखंड एकरूप प्रत्यक्षज्ञानमय स्वरूप से परिणमन करते हुए केवलज्ञान ही परिणाम रहता है। कोई केवलज्ञान से भिन्न परिणाम नहीं होता है, जिससे कि खेद
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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