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________________ पवयणसारो ] न्नसकलपवार्थपरिच्छेद्याकारश्वरूप्य प्रकाशनास्पदीभूतं चित्रभित्तिस्थानीयमनन्तस्वरूप स्वयमेव परिणामत्केवलमेव परिणामः, ततः कुतोऽन्यः परिणामो यद्वारेण खेदस्यात्मलाभः, यतश्च समस्तस्वभावप्रतिघाताभावात्समुल्लसितनिरङ् कुशानन्तशक्तितया, सकलं कालिकं लोकालोकाकारमभिव्याप्य कूटस्थत्वेनात्यन्तनिःप्रकम्पं व्यवस्थितत्वादनाकुलता सौख्यलक्षणभूतामात्मनोऽव्यतिरिक्तां विभ्राणं केवलमेव सौख्यम् । ततः कुतः केवलसुखयोध्यंतिरेकः । अतः सर्वथा केवलं सुखमेकान्तिकमनुमोदनीयम् ॥६०॥ भूमिका-अब, केवलज्ञान के भी परिणाम-द्वार से (परिणमन होने के कारण) संभवते खेद के होने से ऐकान्तिक (सर्वथा) सुखपना नहीं है, इस अभिप्राय का खण्डन करते हैं ___ अन्धयार्थ—यत् ] जो | केवलं इति ज्ञानं] 'केवल' नाम का ज्ञान है [तत् सौख्य] वह सुख है [च] और [परिणामः | परिणाम भी [सः एव] वह ही है। [तस्य खेद: न भणितः ] उसके खेद नहीं कहा गया है [यस्मात् ] क्योंकि [घातीनि] घातिकर्म [क्षयं जातानि] क्ष्य को प्राप्त हो गये हैं। टीका-यहाँ (केवलज्ञान के सम्बन्ध में) खेद क्या है ? (२) परिणाम क्या है ? तथा (३) केवलज्ञान और सुख में भिन्नता क्या है ? कि जिससे केवलज्ञान के ऐकान्तिक (सर्वथा) सुखपना न हो? (१) खेद के आयतन (स्थान) घातिकर्म हैं, केवल परिणाम मात्र (खेद का स्थान) नहीं है। क्योंकि घातिकर्म महामोह के उत्पादक होने से, उन्मत्त करने वाली वस्तु की भांति, अतत् में तत-बुद्धि कराकर आत्मा को ज्ञेय पदार्थ के प्रति परिणमन कराते हैं, इसलिये वे (घातिकर्म) प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणमित हो-होकर थकने वाले उस आत्मा के लिये खेद के कारणपने को प्राप्त होते हैं । उन (घातिकर्मों) का अभाव हो जाने से केवलज्ञान में खेद की प्रगटता किस कारण से हो सकती है ? (यानि नहीं हो सकती) । (२) और क्योंकि तीनकाल-जितने (कालिक) समस्त पदार्थों को ज्ञेयाकार रूप विविधता को प्रकाशित करने का स्थान-भूत (केवलज्ञान) चित्रित वीवार की भांति स्वयं ही अनन्त स्वरूप परिणमन करता हुआ केवलज्ञान ही परिणाम है। इसलिये अन्य परिणाम कहाँ है कि जिसके द्वारा खेद की उत्पत्ति हो ? (अर्थात् नहीं है)। और (३) समस्त स्वभाव प्रतिघात के अभाव से निरंकुश अनन्तशक्ति के उल्लसित होने से समस्त अकालिक लोकालोक के आकार को व्याप्त होकर कूटस्थपने के कारण से अत्यन्त निष्कंप व्यवस्थित रहने से आत्मा से अभिन्न सुख-लक्षणभूत अनाकुलता को धारण करता हुआ केवलज्ञान ही सुख है। इसलिये केवलज्ञान और सुख में भिन्नता कहां है ? (नहीं है)। इससे, 'केवलमान ऐकान्तिक सुख है' यह सर्वथा अनुमोदन करने योग्य है ।।६०॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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