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। पवयणसारो कथंभूतः सन् ? वयावृत्त्यर्थमुद्यतः समणो ण हवदि तदा श्रमणस्तपोधनो न भवति । तर्हि किं भवति ? हदि अगारी अगारी गृहस्थो भवति। कस्मात् ? धम्मो सो सावयाणं से षट्कायविराधनां कृत्वा योसो धर्मः स श्रावकाणां स्यात् न च तपोधनानामिति । इदमत्र तात्पर्यम-योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावधं नेच्छति तस्येदं व्याख्यानं शोभते यदि पुनरन्यत्र सावधमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकायें नेच्छति तदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति ॥२५०।।
उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि वयावृत्य के समय में भी अपने संयम का घात साधु को कभी नहीं करना चाहिये
अन्वय सहित विशेपार्थ—(जवि) यदि (वेज्जावरचत्थमुज्जदो) वैयावृत्त्य के लिये उद्यम करता हुआ साधु (कायखे कुणाद) षटकाय के जीवों की विराधना करता है तो (समणो ण हवदि) वह साधु नहीं है, (अगारी हववि) वह गृहस्थ हो जाता है, क्योंकि (सो सावयाणं धम्मो से) षट् काय के जीवों का आरम्म श्रावकों का कार्य है, साधओं का धर्म नहीं है। यहां यह तात्पर्य है कि जो कोई अपने शरीर की पुष्टि के लिये या शिष्यादिकों के मोह में पड़कर उनके लिये पापकर्म की या हिंसाकर्म की इच्छा नहीं करता है उसी के यह व्याख्यान शोभनीक है, परन्तु यदि वह अपने व दूसरों के लिये पापमय कर्म की इच्छा करता है, वैयावृत्य आदि अपनी अवस्था के योग्य धर्म कार्य की अपेक्षा से नहीं चाहता है उसके तब से सम्यग्दर्शन ही नहीं है। मुनि व श्रावकपना तो दूर ही रहा ॥२५॥ अथ प्रवृत्तेविषयविभागे दर्शयति
जोण्हाणं णिरवेक्खं सागारणगारचरियजुत्ताणं । अणुकंपयोवयार' कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो' ॥२५॥
जैनानां निरपेक्ष साकारान।कारचर्यायुक्तानाम् ।
अनुकम्पयोपकारं करोतु लेपो यद्यप्यल्पः ॥२५१।। या किलानुकम्पापूविका परोपकारलक्षणा प्रयत्तिः सा खल्वनेकान्तमंत्रीपवित्रतचित्तेषु शुद्धेषु जनेषु शुद्धात्मज्ञानदर्शनप्रवृत्तवृत्तितया साकारानाकारचर्यायुक्तेषु शुद्धात्मोपलम्भेतरसकलनिरपेक्षतयैवारुपलेपाप्यप्रतिषिद्धा । न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र तथाप्रवृत्त्या शुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपतेरिति ॥२५१॥
भूमिका—अब, प्रवृत्ति के विषय के दो विभाग बतलाते हैं
अन्वयार्थ-[यद्यपि अल्पः लेपः] यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि [साकाराना१. अणुकंपओवपारं (ज० वृ.) । २. वियप्पो (ज० वृ०।