SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 622
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६४ ] [ पक्ष्यणसारी अन्वयार्थ-[यः अपि] जो कोई (श्रमण) [नित्यं] सदा [चातुर्वर्णस्य] चार प्रकार के [श्रमणसंघस्य] श्रमण संघ का कायविराधनरहित] जीवों की विराधना से रहित [उपकरोति ] उपकार करता है, [सः अपि] वह भी [सरागप्रधान: स्यात् ] राग की प्रधानता वाला है। टीका---दयोंकि संयम की प्रतिज्ञा को है इसलिये षट्काय के विराधन से रहित जो कोई भी, शुखात्मपरिणति के रक्षण में निमित्समत, चार प्रकार के श्रमणसंध के उपकाररूप प्रवृत्ति है वह सभी रागप्रधानता के कारण शुभोपयोगियों के ही होती है, शुद्धोपयोगियों के कदापि नहीं ॥२४६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ काश्चिदपि या प्रवृत्तयस्ताः शुभोपयोगितामेवेति नियमति उपकुवि जो वि णिच्चं चादुय्यण्णस्स समणसंघस्स उपकरोति योऽपि नित्यं कस्य चातुर्वर्णस्य अमणसंधस्य । अत्र श्रमणशब्देनं श्रमणशब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राह्याः 1 "देशप्रत्यक्षवित्केवल. भृदिहमुनिः-स्यादृषिः प्रमृद्धिराख्दः श्रेणियुग्मेऽजनि यतिरनगारोऽपरः साधुवर्गः । राजा ब्रह्मा च देवपरम इति ऋषिविक्रियाक्षीणशक्तिप्राप्तो बुद्धधौषधीशो वियदयनपटुर्विश्ववेदी क्रमेण ॥१॥" ऋषय ऋद्धिप्राप्तास्ते चतुविधा राजब्रह्मदेवपरम ऋषिभेदात् । तत्र राजर्षयो विक्रियाक्षीद्धप्राप्ता भवन्ति । ब्रह्मर्षयो बुद्धचोषद्धियुक्ता भवन्ति । देवर्षयो गगनगमनद्धिसम्पन्ना भवन्ति, परमर्षयः केवलिनः केवलशानिनो भवन्ति, मुनयः अवधिमनःपर्ययकेवलिनश्च । यतय उपशमकक्षपकश्रेण्यारूढाः । अनगाराः सामान्यसाधवः । कस्मात् ? सर्वेषां सुखदुःखादिविषये समतापरिणामोऽस्तीति । अथवा श्रमगधर्मानुकूलश्रावकादिचातुर्वर्णसंघः । कथं यथा भवति ? फायविराधणरहिवं स्वभावनास्वरूपं स्वकीयशुद्धचंतन्यलक्षणं निश्चयप्राणं रक्षन् परकीयपट कायविराधनारहितं यथा भवति सो वि सरागप्पधाणो से सोपीत्थंभूतस्तपोधनो धर्मानुरागचारित्रसहितेपु मध्ये प्रधानः श्रेष्ठ: स्यादिव्यर्थः ।। २४६।। उत्थानिका-ये प्रवृत्तियां शुभोपयोगी साधुओं के होती हैं, ऐसा नियम करते हैं-- अन्वय सहित विशेषार्थ—(जो वि) जो कोई (चायण्णस्स समणसंघस्स) चार प्रकार साधु संघ का (णिच्न) नित्य (काविराधणरहिद) छहकाय के प्राणियों की विराधना से रहित क्रिया द्वारा (उचकुणंदि) उपकार करता है (सोवि) वह साधु भी (सरागप्पधाणो से) शुभोपयोगधारियों में मुख्य होता है । चार प्रकार संघ में ऋषि, मुनि, यति, अनगार लेने योग्य हैं। एकदेशप्रत्यक्ष अर्थात् अवधि मनःपर्ययज्ञान के धारी तथा केवलज्ञानी मुनि कहलाते हैं, ऋद्धिप्राप्त मुनिऋषि कहलाते हैं, उपशम और अपकणि में आरूढ यति कहलाते हैं तथा सामान्य साधु अनगार कहलाते हैं। ऋद्धिप्राप्त ऋषियों के चार भेद हैंराजऋषि, ब्रह्मऋषि, देवऋषि, परमऋषि इनमें जो विक्रिया और अक्षीणऋद्धि के धारी हैं।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy