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________________ ११४ ] पवयणसारो प्रतिभासमय अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाला है। और वे (अनन्त विशेष) सर्व द्रव्यपर्याय-निमित्तक है । जो पुरुष सर्व द्रध्य पर्याय जिनके निमित्त हैं ऐसे अनन्त विशेषों में व्याप्त होने वाले प्रतिभासमय महासामान्यरूप आत्मा को स्वानुभव प्रत्यक्ष नहीं करता है, वह प्रतिभासमय महासामान्य के द्वारा व्याप्त जो प्रतिभासमय अनन्त विशेष हैं उनके कारणभूत सर्व द्रव्य पर्यायों को कैसे प्रत्यक्ष करें ? (नहीं कर सकता)। इससे यह फलित हआ कि जो आत्मा को नहीं जनता, वह सबको नहीं जानता। अब (गाथा ४८ से) सर्व के ज्ञान से आत्मा का ज्ञान और (गाथा ४६ से) आत्मा के ज्ञान से सर्व का ज्ञान होता है, यह (सिद्धान्त) निश्चित होता है। ऐसा होने से आत्मा के ज्ञानमयता के कारण स्वसंचेतकपना होने से, ज्ञाता और जेय का वस्तु रूप से अन्यत्व होने पर भी प्रतिभास (ज्ञान) और प्रतिभास्यमान (ज्ञेयाकार) का अपनी अवस्था में अन्योन्य मिलन होने के कारण (ज्ञान और ज्ञेय आकार, आत्मा की ज्ञान की अवस्था में परस्पर मिश्रित एकमेक रूप होने के कारण) उन्हें भिन्न करना अत्यन्त अशक्य होने से सब कुछ आत्मा में खुदे हुए के समान प्रतिभासित होता है। (आत्मा ज्ञानमय है इसलिये वह अपने को अनुभव करता है--जानता है, और अपने को जानने पर समस्त ज्ञेय ऐसे ज्ञात होते हैं मानों वे ज्ञान में स्थित ही हों, क्योंकि ज्ञान की अवस्था में से ज्ञेयाकारों को भिन्न करना अशक्य है)। यदि ऐसा न हो तो (यदि आत्मा सबको न जानता हो तो) ज्ञान के परिपूर्ण आत्मसंचेतन का अभाव होने से परिपूर्ण तक आत्मा का भी ज्ञान सिद्ध नहीं होता ॥४॥ तात्पर्यवृत्ति अथै कमजानन् सर्वं न जानातीति निश्चिनोति दव्यं द्रव्यं अपंतपज्जयं अनन्तपर्यायं एमं एक अणंताणि दन्वजावाणि अनन्तानि द्रव्यजातानि जो ण विजापदि यो न विजानाति अनन्तद्रव्यसमूहान् कधं सो सवाणि जाणादि कथं स सर्वान् जानाति जुगवं युगपदेक समये, न कथमपीति तथाहि-आरमलक्षणं तावज्ज्ञानं तच्चाखण्डप्रतिभासमयं सर्वजीवसाधारण महासामान्यम् । तच्च महासामान्य ज्ञानमयानन्तविशेषव्यापि । ते च ज्ञानविशेषा अनन्तद्रव्यपर्यायाणां विषयभूतानां ज्ञवभूतानां परिछंच्नका ग्राहकाः । अखण्डे कप्रतिभासमयं यन्महासामान्य तत्स्वभावमात्मानं योसौ प्रत्यक्षं न जानाति स पुरुष: प्रतिभासमयेन महासामान्येन ये व्याप्ता अनन्तशानविशेषास्तेषां विषयभूताः येऽनन्तद्रव्यायास्तान् कथं जानाति ? न कथमपि । अथ एतदायात य: आत्मानं न जानाति स सर्व न जानातीति । तथा चोक्तम् "एको भाव: सर्वभावस्वभावः, सर्व भावा एकभावस्वभावाः । • एको भावस्तत्वतो येन बुद्धः, सर्वे भावास्तत्वतस्तेन बुद्धा: ।।१।।"
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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