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________________ पवयणसारी ] अत्राह शिष्य:-आत्मपरिज्ञाने सति सर्वपरिजनं भवतीत्यत्र व्याख्यातं, तत्र तु पूर्वसूत्रे भणितं सर्वपरिज्ञाने सत्यात्मपरिज्ञानं भवतीति । यद्य व तहि छद्मस्थानां सर्वपरिज्ञानं नास्त्यात्मपरिज्ञानं कथं भविष्यति ? आत्मपरिज्ञानाभावे चात्मभावना फथ ? तदमावे केवलज्ञानोत्पत्तिस्तिोति । परिहारमाह - परमाणभूतनाग माना जागते : दशमिति चेत् लोकालोक.दिपरिज्ञानं व्याप्तिज्ञानरूपेण छद्मस्थानामपि विद्यते, तच्च व्याप्तिज्ञानं परोक्षाकारेण केवलज्ञानविषयग्राहक कविदात्मैव भव्यते । अथवा स्वसंवेदनज्ञानेनात्मा ज्ञायते, ततश्च भावना क्रियते, तया रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानभावनया केवलज्ञानं च जायते । इति नास्ति दोष: ।। ४६) उत्थानिका-आगे निश्चय करते हैं कि जो एक को नहीं जानता वह सबको भी नहीं जानता है। अन्वय सहित विशेषार्थ—(अदि) यदि कोई आत्मा (एगं अगंतपज्जयं बव्य) एक अनन्त पर्यायों के रखने वाले द्रव्य को (ण विजाणदि) निश्चय से नहीं जानता है (सो) वह आत्मा (क) किस तरह (सवाणि अणंताणि दध्वजादाणि) सर्व अनन्तद्रव्य समूहों को (जुगवं) एक समय में (जाणादि) जान सकता है ? अर्थात् किसी तरह भी नहीं जान सकता। विशेष यह है कि आत्मा का लक्षण ज्ञानस्वरूप है। सो अखंड रूप से प्रकाश करने वाला सर्व जीवों में साधारण महासामान्यरूप है। वह महासामान्य ज्ञान अपने ज्ञानमयी अनन्त विशेषों में व्यापक है, वे ज्ञान के विशेष अपने विषय रूप ज्ञेय पदार्थ जो अनन्त तथ्य और पर्याय हैं उनको जानने वाले, ग्रहण करने वाले हैं जो कोई अपने आत्मा को अखण्ड रूप से प्रकाश करते हुए महासामान्य स्वभाव रूप प्रत्यक्ष नहीं जानता है वह पुरुष प्रकाशमान महासामान्य के द्वारा जो अनन्सज्ञान के विशेष व्याप्त हैं उनके विषय रूप जो अनन्त द्रव्य और पर्याय हैं उनको कैसे जान सकता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं जान सकता । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो अपने आत्मा को नहीं जानता है वह सर्व को नहीं जानता है । ऐसा कहा भी है एको मावः सर्व-भाव-स्वभावः सवें भावा एक-भाव-स्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन बद्रः सर्व भावास्तत्वतस्तेन बद्धाः॥ भाव यह है कि एक-भाव सर्व-भावों का स्वभाव है और सर्व-भाव एक-भाव के स्वभाव हैं । जिसने निश्चय से-यथार्थ रूप से एक भाव को जाना उसने यथार्थ रूप से सर्व भावों को जाना है। यहाँ शाता और ज्ञेष सम्बन्ध लेना चाहिये, जिसने ज्ञाता को जाना उसने सब ज्ञेयों को जाना ही है। यहाँ पर शिष्य ने प्रश्न किया कि आपने यहाँ यह व्याख्या की कि आत्मा को जानते हुए सर्व का ज्ञानपना होता है और इसके पहले सूत्र में कहा था कि सब ज्ञान से
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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