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________________ ५१८ ] [ पक्ष्यणसारो कर्मधूलि विहाय बहिरङ्गधूलि विधुनोति विनाशयति । धोवइ निर्मलपरमात्मतत्त्वमलजनकरागादिमलं विहाय बहिरङ्गमलं धौति प्रक्षालयांत सांसद जदंतुआय वित्तमायाकल्पध्यानासोतसारनदीशोषणमकुर्वन् शोषयति शुष्कं करोति यदं तु यत्नपरं तु यथा भवति । किं कृत्बा? आतपे निक्षिप्य। किं तत् ? पत्तं च चेलखंडं पात्रं बस्त्रखण्डं बा विभेदि निर्भयशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन् विभेति भयं करोति । कस्मात्सकाशात् ? परदो य परतश्चौरादेः पालयदि परमात्मभावनां न पालयन्न रक्षयन्परद्रव्यं किमपि पालयतीति तृतीया गाथा ॥२२०-१-२-३।। उत्थानिका-आगे इस ही परिग्रह के त्याग को दृढ़ करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (इह सत्ते) किसी विशेष सूत्र में (चेलखंड गेण्हदि) साधु वस्त्र के खंड को स्वीकार करता है (व भायणं अथिति भणिदम्) या उसके भिक्षा का पात्र होता है ऐसा कहा गया है तो (सो) वह पुरुष निरालम्ब परमात्मा के तत्व की भावना से शून्य होता हुआ (कह) किस तरह (चत्तालबो) बाहरी द्रव्य के आलम्बन रहित (हदि) हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता (वा अणारम्भो) अथवा किस तरह क्रिया रहित व आरम्भ रहित निज आत्मतत्व की भावना से रहित होकर आरम्भ से शून्य हो सकता है ? अर्थात् आरम्भ रहित न होकर आरम्भ सहित ही होता है। यदि वह (यस्थक्खण्ड) वस्त्र के टुकड़े को, (दुद्दियभायणं) दूध के लिये पात्र को (अण्णं च गेहदि) तथा अन्य किसो कम्बल या मुलायम शय्या आदि को ग्रहण करता है तो उसके (णियदं) निश्चय से (पाणारम्भो विज्जदि) अपने शुद्धचैतन्य लक्षण प्राणों का विनाश रूप अथवा प्राणियों का वध रूप प्राणारम्भ होता है तथा (तस्स चित्तम्मि विषखेबो) उस क्षोभ रहित चित्तरूप परम योग से रहित परिग्रहवान पुरुष के चित्त में विक्षेप होता है या आकुलता होती है। वह यति (पत्तं च चेलखंड) माजन को या वस्त्र खण्ड को (गेण्हइ) अपने शुद्धात्मा के ग्रहण से शून्य होकर ग्रहण करता है, (विधुणइ) कर्म धूल को झाड़ना छोड़कर उसको बाहरी धूल को झाड़ता है, (धोवइ) निज परमात्मतत्व में मल उत्पन्न करने वाले रागादि मल को छोड़कर उनके बाहरी मल को धोता है (जदं तु आदवे खित्ता सोसेइ) और निर्विकल्प ध्यानरूपी धप से संसार नदी को नहीं सुखाता हुआ यत्नवान होकर उसे धूप में डालकर सुखाता है (परदो य विभेदि) और निर्भय शुद्ध आत्मतत्व की भावना से शून्य होकर दूसरे चौर आदिकों से भय करता है (पालयवि) तथा परमात्मभावना को रक्षा छोड़कर उनकी रक्षा करता है ।।२२०-१, २२०-२, २२०-३॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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