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वयनसारो ]
सहज शुद्ध विवानन्दमय एक स्वभाव अलग है उसका किसी के साथ मोह नहीं है, यह अभिप्राय है ॥६०॥
इस तरह स्व-पर के ज्ञान में मूढता को हटाते हुए दो गाथाओं के द्वारा चौभी ज्ञानकठिका पूर्ण हुई ।
इस तरह पच्चीस गाथाओं के द्वारा ज्ञानकंठिका का चतुष्टय नाम का दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ ।
अथ जिनोविता श्रज्ञानमन्तरेण धर्मलाभो न भवतीति प्रतर्कयति -
सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो सद्दहदि ण सो समणो तत्तो
हि णेव सामण्णे ।
धम्मो ण संभवदि ॥ ६१ ॥
सत्तासम्बद्धानेतान् सविशेषान् यो हि नैव श्रामण्ये | श्रद्धघाति न सः श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ॥ ६१ ॥
यो हि नामतानि सादृश्यास्तित्वेन सामान्यमनुव्रजन्त्यपि स्वरूपास्तित्वेनाश्लिष्टविशेषाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छन्दन्न श्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति सलुन नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्नरेणुकनककणिका विशेषाद्ध विधान कात्कनकलाम इव निरपरागात्मतस्योपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो न संभूतिमनुभवति ॥ ६१ ॥
भूमिका – अब, जिनेन्द्र के कहे हुए पदार्थो के श्रद्धान बिना धर्म लाभ नहीं होता, यह न्यायपूर्वक विचार करते हैं
अन्वयार्थ – [ यः श्रामण्ये ] जो श्रमण अवस्था में [ एतान् सत्तासंबद्धान् सविशेयान् ] इन सत्ता - संयुक्त सविशेष पदार्थों को [न एव श्रद्दधाति ] श्रद्धान नहीं करता [सः ] वह [ श्रमणः न ] श्रमण नहीं है [ ततः ] उस ( श्रमणाभासपने ) से [ धर्मः न संभवति ] धर्म का उद्भव नहीं होता है ।
टीका - जो (जीव ) सादृश्य अस्तित्व से समानता को धारण करते हुये भी स्वरूप अस्तित्व से विशेष-युक्त इन द्रव्यों को स्व-पर के भेद से नहीं जानता हुआ और श्रद्धान नहीं करता हुआ, यों ही (ज्ञान श्रद्धान के बिना ) मात्र श्रमणता से ( द्रव्य मुनित्व से ) आत्मा को ( अपने को ) वमन करता है, वह वास्तव में भ्रमण नहीं है। क्योंकि जैसे रेत और स्वर्ण-कणों में भेद ज्ञात न होने पर, मात्र धूल के ( रेत के धोने से स्वर्ण का उद्भव नहीं होता, इसी प्रकार स्व-पर का भेद ज्ञान न होने से, मात्र श्रमणामाभपने से निरुपराग (निविकार) आत्मतत्व की उपलब्धि ( प्राप्ति ) लक्षण वाला धर्म लाभ का भी उद्भव नहीं होता १६१ ||