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________________ २०४ ] [ पवयणसारो जानता हूँ) । इसलिये न मैं आकाश हूँ, न धर्म हूँ, न अधर्म हूँ, न काल हूँ, न पुद्गल हूँ और न आत्मान्तर ( अन्य आत्मा) हूँ, क्योंकि मकान के एक ही कमरे में जलाये गये अनेक दीपकों के प्रकाशों की भांति इकट्ठे ( एक क्षेत्रावगाही ) रहने वाले बच्चों में भी मेरा चैतन्य, निजस्वरूप से अच्युत ही रहता हुआ, मुझको पृथक् जनाता ( प्रगट करता ) है । इस प्रकार निश्चित किया है स्वपर का विवेक जिसने ऐसे इस आत्मा के वास्तव में विकार को उत्पन्न करने वाले मोहांकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता ॥ ६० ॥ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्व सूत्रे यदुक्तं स्वपरभेदविज्ञानं तदागमतः सिद्धयतीति प्रतिपादयति तम्हा जिणगावो यस्मादेवं भणितं पूर्वं स्वपरभेदविज्ञानाद् मोहक्षयो भवति, तस्मात्कारणाज्जिनमार्गाज्जिनागमात् गुणेह गुणैः आवं आत्मानं न केवलमात्मानं परं च परद्रव्यं च । केषु मध्ये ? सु शुद्धात्मादिषद्रव्यमध्येषु अहिगच्छतु अभिगच्छतु आनातु यदि । किं ? णिम्मोहं इच्चदि जनि निर्मोहभावमिच्छति यदिचेत् । स क: ? अप्पा आत्मा । कस्य संबन्धित्वेन ? अपणो आत्मन इति । I तथाहि यदिदं मम चैतन्यं स्वपरप्रकाशकं तेनाहं कर्ता शुद्धज्ञानदर्शनभावं स्वकीयमात्मानं जानामि, परं च पुद्गलादिपञ्चद्रव्य रूपं शेष जीवान्तरं च पररूपेण जानामि, ततः कारणादेकापचरकप्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्वेव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्धचिदानन्देकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः ॥ ६० ॥ एवं स्वपरपरिज्ञानविषये मूढत्वनिरासार्थं गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्ठिका गता । इति पञ्चविशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकारः समाप्तः । उत्थानिका -- आगे पूर्व सूत्र में जिस स्व-पर के भेद - विज्ञान की बात कही है, वह भेद - विज्ञान जिन आगम के द्वारा सिद्ध हो सकता है, ऐसा कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तम्हा ) क्योंकि पहले यह कह चुके हैं कि स्व पर के भेद-विज्ञान से मोह का क्षय होता है इसलिये ( जिणमगादो) जिन - आगम ( बब्सु ) शुद्धात्मा आदि छः द्रव्यों के मध्य में से ( गुणैः) उनके उन गुणों के द्वारा ( आदं परं च आत्मा को और परवव्य को (अहिगच्छक) जाने, (जदि ) यदि (अप्पा) आत्मा (अप्पणी ) अपने भीतर ( जिम्मोह) मोह-रहित भाव को ( इच्चदि ) चाहता है। विशेष यह है कि जो यह मेरा चैतन्यभाव अपने को और पर को प्रकाशमान करने वाला है उसी करके में शुद्ध ज्ञानदर्शन भाव को अपना आत्मा रूप जानता है तथा पर जो पुद्गल आदि पांच द्रव्य हैं तथा अपने जीव के सिवाय अन्य सर्व जीव हैं, उन सबको पररूप से जानता हूँ । इस कारण से जंसे एक घर में जलते हुए अनेक दोषकों का प्रकाश है किन्तु सबका प्रकाश अलग-अलग है । इस ही तरह सर्व द्रव्यों के भीतर में मेरा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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