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________________ पवयणसारो ] [ २०३ माकाशं न धर्मो ना धर्मो न च कालो न पुद्गलो नात्मान्तरं च भवामि, यतोऽमीवेकापवरकप्रबोधितानेकदीपप्रकाशेविव, संभूयावस्थितध्यपि मच्चतन्यं स्वरूपावप्रच्युतमेव मां पृयगवगमयति । एवमस्य निश्चितस्वपर विवेकस्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहाङ्कुरस्य प्रादुर्भूतिः स्यात् ॥६॥ भूमिका—अब, सब प्रकार से स्व-परके विवेक की सिद्धि आगम से करने योग्य है, इस प्रकार उपसंहार करते हैं अन्वयार्थ—[तस्मात् ] इस कारण से (क्योंकि स्व-पर के विवेक द्वारा मोह का नाश हो सकता है इस कारण से) [यदि] जो [आत्मा] आत्मा [आत्मनः] अपनी [निर्मोहे] निर्मोहता [पृच्छति ] चाहता है तो [जिनमार्गात् ] जिन मार्ग से (जिन आगम से) [नो] (छह, द्रों में गुणैः] (जि.) गुणों के द्वारा [आत्मानं परं च] स्व और पर को [अभिगच्छतु] जानो। ___टीका-मोहका क्षय करने के प्रति अभिमुख बुध-जन इस जगत् में निश्चय से आगम में कथित अनन्त गुणों में से किन्हीं गुणों के द्वारा-जो गुण अन्य (द्रव्य) के साथ योग (सम्बन्ध) रहित होने से असाधारणता को धारण करके विशेषत्व को प्राप्त हुए हैं, उनके द्वारा-अनन्त द्रव्य-परम्परा में स्व-परके विवेक को प्राप्त करो (मोह का क्षय करने के इच्छुक पडित जन आगम-कथित अनन्त गुणों में असाधारण लक्षणभूत गुणों के द्वारा अनन्त द्रव्य-परम्परा में 'यह स्व-द्रध्य है और यह पर द्रव्य है" ऐसा विवेक करो), जो कि इस प्रकार है--- सत् और अकारण होने से स्वतःसिद्ध, अन्तर्मुख और बहिर्मुख प्रकाशवाला होने से स्व पर का ज्ञायक, ऐसा जो यह मेरे साथ संबन्ध वाला मेरा चैतन्य है तथा जो (चैतन्य) समान-जातीय अथवा असमान-जातीय अन्य द्रव्य को छोड़कर मेरे आत्मा में ही वर्तता है, उस (चैतन्य) के द्वारा मैं अपने आत्मा को सकल त्रिकाल में ध्रुवत्व का धारक द्रव्य जामता है, इस प्रकार पृथक् रूप से वर्तने वाले स्वलक्षणों के द्वारा जो अन्य द्रव्य को छोड़कर उसी द्रब्य में वर्तते हैं उनके द्वारा-आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुदगल और अन्य आत्मा को सकल त्रिकाल में ध्रुवत्व-धारक द्रव्य के रूप में निश्चित करता हूँ (जैसे चैतन्य लक्षण के द्वारा आत्मा को ध्रुव द्रव्य के रूप में जाना, उसी प्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व, इत्यादि लक्षणों से जो कि स्वलक्षणभूत द्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में नहीं पाये माते उनके द्वारा-आकाश धर्मास्तिकाय इत्यादि को भिन्न-भिन्न ध्रय द्रव्यों के रूप में
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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