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________________ पक्यणसारो ] [ ४५ हुआ, स्वयमेव स्वपर, प्रकाशकता लक्षण वाले ज्ञान और अनाक्लता लक्षण वाले सुखरूप होकर परिणमित होता है। सार--इस प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान और आनन्द है। स्वभाव के पर का निरपेक्षपना होने के कारण से, इन्द्रियों के विना भी, आत्मा के ज्ञान और आनन्द होते हैं। तात्पर्यवति अथास्यास्मनो निर्विकारस्यसंवेदनलक्षणशुद्धोपयोगप्रभावात्सर्वज्ञत्वे सतीन्द्रियविना कथं ज्ञानानन्दाविति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति पक्खीणघाइकम्मो ज्ञानाद्यनन्त चतुष्टयस्वरूपपरमात्मद्रव्यभावनालक्षणशुद्धोपयांगबलेन प्रक्षीणघातिकर्मा सन् 1 अणंतवरबोरियो अनन्तवरवीर्यः । पुनरपि किविशिष्टः ? अहियतेजो अधिकतेजाः। अत्र तेज:शब्देन केवलज्ञानदर्शनद्वयं ग्राह्यम् । जादो सो स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा जात: संजातः । कथंभूतः ? अणिवियो अनि न्द्रिय इन्द्रियविषयध्यापार. रहितः । अतीन्द्रियः सन् कि करोति ? गाणं सोक्खं च परिणमदि केबलज्ञानमनन्तसौख्यं च परिणपतीति । तथाहि-अनेन व्याख्यानेन किमुक्त भवति ? आत्मा तावनिश्चयेनानन्तज्ञानसुख स्वभावोऽरि व्यवहारेण संसारावस्थायां कर्मप्रच्छादितज्ञानसूखः सन् पश्चादिन्द्रियाधारेण किमप्यल्पज्ञानं सुखं च परिणमति ? यदा पुननिर्विकल्पस्वसंवित्ति बलेन कर्माभावो भवति तदा क्षयोपशमाभावादिन्द्रियाणि न सन्ति स्वकीयातीन्द्रियज्ञानसुखं चानुमवति । ततः स्थितं इन्द्रियाभावेऽपि स्वीकायानन्तज्ञानं सुख चानुभवति तदपि कस्मात् ? स्वभावस्य पगपेक्षा नास्तीत्यभिप्रायः ।।१६।। उत्थानिका—आगे शिष्य ने प्रश्न किया कि इस आत्मा के विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण रूप शुद्धोपयोग के प्रभाव से सर्वज्ञपना प्राप्त होने पर इन्द्रियों के द्वारा उपयोग तथा भोग के विना किस तरह ज्ञान और आनन्द हो सकते हैं ? इसका उत्तर आचार्य देते हैं - ___ अत्वय सहित विशेषार्थ— (सो) वह सर्वज्ञ आत्मा जिसका लक्षण पहले कहा है (पक्खीणघाइकम्मो) घातियाकर्मों को क्षयकर अर्थात् अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य इन चतुष्टय रूप परमात्मा द्रव्य की भावना के लक्षण को रखने वाले शुद्धोपयोग के बल से ज्ञानावरणादि धातियाकर्मों को नाशकर (अणंतवरवीरियो) अंत रहित और उत्कृष्ट वीर्य को रखता हुआ (अहियतेजो) व अतिशय तेज को घरता हुआ अर्थात् केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त हुआ (अणिदियो) अतीन्द्रिय अर्थात् इंद्रियों के विषयों के व्यापार से रहित (जादो) हो गया (च) तथा ऐसा होकर (णाणं) केवलज्ञान को (सोक्खं) और अनंतसुख को (परिणमदि) परिणभन करता है । इस व्याख्यान में यह कहा है कि आत्मा यद्यपि निश्चय से अनंतमान और अनंतसुख के स्वभाव को रखने वाला है तो भी व्यवहार से संसार की अवस्था में पड़ा हुआ है, जब इसका केवलज्ञान और अनंतसुख स्वभाव कर्मों से ढका हुआ है, तब तक पांच इन्द्रियों के
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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