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________________ २६ ] [ पवयणसारो करने में समर्थ चारित्र-वाला होता हुआ साक्षात् मोक्ष को प्राप्त करतर है । किन्तु जब वही आत्मा धर्म-परिणत स्वभाव वाला होता हुआ भी शुभोपयोग रूप परिणति से संगत (युक्त) होता है—सराग चारित्र को धारण करता है-तब विरोधी शक्ति (राग भाव) से सहित होने के कारण अपना कार्य करने में असमर्थ वह कथंचित् विरुद्ध कार्य करने वाले चारित्र से युक्त होकर स्वर्ग सुखरूप बन्धन को प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ-जैसे अग्नि से सन्तप्त घी से सिक्त-जला हुआ पुरुष जलन से दुःख को प्राप्त करता है । इसलिये शुद्धोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेय है। __ भावार्थ-छठे से बारहवें गुणस्थान तक के मुनि को अभेददृष्टि से चारित्रपरिणत-गम कहते हैं : को को हो सृष्टि के सातवें से बारहवें तक शुद्धोपयोगी या वीतरागचारित्र का धारी कहते हैं, जिसका फल साक्षात् मोक्ष है और छठे में शुभोपयोगी या सरागचारित्र वाला कहते हैं, जिसका फल (परम्परा मोक्ष होने पर भी) साक्षात् पुण्यबंध रूप स्वर्ग है । इस सम्बन्ध में शब्द "कथंचित्" ध्यान देने योग्य है ॥११॥ ___ तात्पर्यवृत्ति अथ वीतराग-सरागचारित्रसंज्ञयोः शुद्ध-शुभोपयोगपरिणामयोः संक्षेपेण फलं दर्शयतिः धम्मेण परिणवप्पा अप्पा धर्मेण परिणतात्मा परिणतस्वरूप: सन्न यमात्मा अदि सुद्धसंपयोगजुको यदि चेच्छुद्धोपयोगाभिधान द्धसप्रयोगपरिणामयुतः परिणतो भवति पावइ णिव्वाणसुहं तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति । सुहोयजुत्तो य सग्गसुहं शुभोपयोगयुतः परिणतः सन् स्वर्गसुखं प्राप्नोति । इतो विस्तरम्-इह धर्मशब्देना हिंसालक्षण: सागारानगाररूपस्तथोत्तमक्षमादिलक्षणो रत्नत्रयात्मको वा, तथा मोहक्षोभरहित आत्मपरिणामः शुद्धवस्तुस्वभावश्चेति गृह्यते। स एव धर्मः पर्यायान्तरेण चारित्रं भण्यते । "चारित्तं खलु धम्मो" इति वचनात् । तच्च चारित्रमपहृतसंयमोपेक्षासंयमभेदेन सरागवीतरागभेदेन वा शुभोपयोगशुद्धोययोगभेदेन च द्विधा भवति । तत्र यच्छुद्धसंप्रयोगपाब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते । निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपपोगरूपप्तरागचारित्रंण परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं लभते । पश्चात् परमसमाधिसामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते इति सूत्रार्थः ।।११॥ ___उत्थानिका—आगे वीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग तथा सरागचारित्ररूप शुभोपयोग परिणामों का संक्षेप से फल दिखाते हैं:--- __ अन्वय सहित विशेषार्थ—(परिणदप्पा) परिणमन स्वरूप होता हुआ (अप्पा) यह आत्मा (जदि) यदि (सुद्धसंपयोगजुदो) शुद्धोपयोग नाम के शुद्ध परिणाम में परिणत होता है (णिवाणसुहं) तब निर्माण के सुख को (पावइ) प्राप्त करता है । (व) भौर यदि (सुहोवजुत्तो) शुभोपयोग में परिणभन करता है तो (सग्गसुह) स्वर्ग के सुख को पाता है ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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