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________________ ४६० । [ पवयणसारो भूमिका-अब, एकाग्र (एक-विषयक) संचेतन जिसका लक्षण है, ऐसा ध्यान आत्मा में अशुद्धता नहीं लाता, यह निश्चित करते हैं ____ अन्वयार्थ-[यः] जो [क्षपितमोहकल्पः ] मोह मल का क्षय करके [विषयविरक्तः] विषय से विरक्त होकर, [मनः निरुध्य] मन का निरोध करके, [स्वभाव समवस्थितः] स्वभाव में समवस्थित (निश्चल) है, [सः] वह [आत्मानं] आत्मा को [ध्याता भवति ] ध्याने वाला होता है। टीका–जिसने मोह मल का क्षय किया है ऐसे आत्मा के, मोह मैल जिसका मूल है ऐसी परद्रव्य प्रवृत्ति का अभाव होने से, विषयविरक्तता होती है उससे, समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भांति, अधिकरण भूत द्रव्यान्तरों का अभाव होने से जिसे अन्य कोई शरण नहीं रही है ऐसे मन का निरोध होता है, इसलिये मन जिसका मूल है, ऐसी चंचलता के विलय होने के कारण अनन्त सहज चतन्यात्मक स्वभाव में समवस्थान (दृढतया रहना) होता है। यह स्वभाव-समवस्थान तो, स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाप्रसंचेतन होने से, ध्यान कहा जाता है । इससे (यह निश्चित हुआ कि-) ध्यान स्वभाव-समवस्थान रूप होने के कारण आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ निजशुद्धात्मैकाग्यलक्षणध्यानमात्मनोऽत्यन्तत्रिशुद्धि करोतोत्यावेदयति, जो खविदमोहकलुसो यः क्षपितमोहकलुषः मोहो दर्शनमोहः कलुषश्चारित्रमोहः पूर्वसूत्रद्वयकथितक्रमेण शपितमोहकलुषो येन स भवति क्षपितमोहकलुषः । पुनरपि किंविशिष्ट: ? विसयविरत्तो मोहवालुषरहितस्वात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखमुधारसास्वादबलेन कलुषमोहोदयजनितविषयसुखाकांक्षारहितत्वाद्विषयविरक्तः । पुनरपि कथंभूत: ? समवद्विदो सम्यगवस्थितः । क्व ? सहावे निजपरमात्मद्रव्ये स्वभावे। किंकृत्वा पूर्व ? मणो णिरु भित्ता विषयकषायोत्पन्नविकल्पजाल रूपं मनो निरुध्य निश्चलं कृत्वा सो अप्पाणं हदि झादा स एवं गुणयुक्तः पुरुषः स्वात्मानं भवति ध्याता । तेनैव शुद्धात्मध्यानेनात्यन्तिकी मुक्तिलक्षणां शुद्धि लभत इति 1 ततः स्थितं शुद्धात्मध्यानाज्जोवो विशुद्धो भवतीति । किच ध्यानेन किलात्मा शुद्धो जातः । तत्र विषये चतुर्विधव्याख्याने क्रियते । तथाहि ध्यान ध्यानसन्तानस्तथैवध्यानचिन्ता ध्यानान्वयसूचनमिति । तत्रैकाग्रयचिन्तानिरोधो ध्यानम् तच्च शुद्धाशुद्धरूपेण द्विधा । अथ ध्यानसन्तानः कथ्यते यत्रान्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानं तदनन्तरमन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं तत्त्वचिन्ता पुनरम्यन्तर्मुहूर्तपर्यन्तं ध्यानम् पुनरपि तवचिन्तेति प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानवदन्तर्मुहूर्ते गते सति परावर्तनमस्ति स ध्यानसन्तानो भण्यते। स च धर्म्यध्यानसम्बन्धी। शुक्लध्यानं पुनरुपममश्रेणिक्षपक श्रेण्यारोहणे भवति । तत्र चापकालत्वात्परावर्तनरूपध्यानसन्तानो न घटते। इदानीं ध्यानचिन्ता कथ्यते यत्र ध्यानसन्तानवद्धयानपरावर्ती नास्ति ध्यानसम्बधिनी चिन्तास्ति तत्र यद्यपि क्वापि काले ध्यानं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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