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________________ पवयणसारो ] [ ४६१ करोति तथापि सा ध्यानचिन्ता भण्यते । अथ ध्यानान्वयसूचनं कथ्यते-यत्र ध्यानसामग्रीभूता द्वादशानुप्रेक्षा अन्यद्वा ध्यानसम्बन्धि संवेगवैराग्यवचनं व्याख्यानं वा तत् ध्यानान्ययसूचनमिति । अन्यथा वा चतुर्विधं ध्यानव्याख्यानं ध्याता ध्यानं फलं ध्येयमिति । अथवार्तरौद्रधHशुक्लबिभेदेन चतुर्विध ध्यानव्याख्यानं तदन्यत्र कथितमास्ते ।।१६।। एवमात्मपरिज्ञानाद्दर्शनमोहक्षपणं भवतीति कथनरूपेण प्रथमगाथा दर्शनमोहक्षयाच्चारित्रमोहक्षपणं भवतीति कथनेन द्वितीया तदुभयक्षयेण मोक्षो भवतीति प्रतिपादनेन तृतीया चेत्यात्मोपलम्भफलकथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका--आगे कहते हैं कि निज शुद्धात्मा में एकाग्रता रूप ध्यान ही आत्मा की अत्यन्त विशुद्धि कर देता है । . अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (खविधमोहकलुसो) मोह की कालिमा को क्षय करके (बिसयविरत्तो) इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होता हुआ (मणोणिरुभित्ता) मन को सब तरह से रोककर (सहावे समवठिदो) अपने आत्मस्वभाव में भले प्रकार स्थिर हो जाता है (सो) वही महात्मा (अप्पाणं झादा हववि) आत्मा को ध्याने वाला होता है। जो कोई पूर्व के दो सूत्रों में कहे प्रमाण दर्शनमोह और चरित्रमोह को क्षय करता हुआ, मोह और रागद्वेष की कलुषता से रहित निजात्मानुभव से उत्पन्न सुखामृतरस के स्वाद बल से कलुषता और मोह के उदय से उत्पन्न विषय सुखों की इच्छा से रहित होता हुआ तथा विषयकषायों से उत्पन्न विकल्प जालों में वर्तने वाले मन को रोककर निज परमात्म स्वभाव में भले प्रकार स्थित होता है वही गुणी पुरुष अपने आत्मा का ध्याता होता है। इसी ही शुद्धात्मध्यान से अत्यन्त शुद्धि अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करता है इससे. सिद्ध हुआ कि शुद्धात्मध्यान से जीय विशुद्ध होता है, क्योंकि ध्यान से वास्तव में आत्मा शुद्ध होता है। ध्यान के सम्बन्ध में चार प्रकार का व्याख्यान करते हैं । वह चार प्रकार ध्यान है। ध्यान, ध्यानसंतान, ध्यानचिता तथा ध्यानान्वयसूचना । इनमें से एक किसी विशेष भाव में चित्त को रोकने को ध्यान कहते हैं। यह ध्यान शुद्ध और अशुद्ध के भेव से दो प्रकार है । अब ध्यान-संतान को कहते हैं-जहाँ अंतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान होता है फिर अन्तर्मुहूर्त पर्यत तत्त्वचिंता होती है फिर भी अंतर्मुहुर्त पयंत ध्यान होता है पीछे फिर तत्वचिंता होती है इस तरह प्रमत्त अप्रमत्त गुण स्थान की तरह अंतर्मुहूर्त २ बीतते हुए पलटन हो जाये उसको ध्यानसंतान कहते हैं। यह धर्मध्यान सम्बन्धी जानना चाहिये। शुक्ल यान उपशम तथा क्षपकत्रेणी के चढ़ने पर होता है वहाँ बहुत ही अल्पकाल है
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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