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________________ ५८६ ] [ पदयणसारो कोई देखे, सुने, अनुभवे भोगों की इच्छा आदि अपध्यान के त्याग के द्वारा अपने स्वरूप की भावना करता है उसका मन बाहरी पदार्थों में नहीं जाता है। तब बाहरी पदार्थों को चिन्ता न होने से विकार रहित चैतन्य के चमत्कार मात्र भाव से च्युत नहीं होता। पुत न होने से रागद्वेषादि भावों से रहित होता हुआ नाना प्रकार कर्मों का नाश करता है । इसलिये मोक्षार्थी को निश्चल चित्त करके अपने आत्मा की भावना करनी योग्य है । इस तरह वीतरागचारिन का व्याख्यान सुनकर कोई कहते हैं कि सयोगकेवलियों को भी एकदेशचारित्र है, पूर्ण-धारित्र तो अयोग-केवली के अन्तिम समय में होगा, इस कारण से हमको तो सम्यग्दर्शन की भावना तथा भेदविज्ञान की भावना से ही पूर्ति है। चारित्र पीछे हो जायेगा ? उसका समाधन करते हैं कि ऐसा नहीं कहना चाहिये । अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है। यह ध्यान केवलियों के उपचार से है तथा चारित्र भी उपचार से है । वास्तव में जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सर्व रागादि विकल्पजालों से रहित शुद्धात्मानुभव रूपी छद्यस्थ अर्थात् अपूर्ण ज्ञानी को होने वाला धोतरागचारित्र है वही कार्यकारी है, क्योंकि इसी के प्रताप से केवल ज्ञान उत्पन्न होता है इसलिये चारित्र में सवा यत्न करना चाहिये, यह तात्पर्य है। यहां कोई शंका करता है कि उत्सर्ग मार्ग के व्याख्यान के समय में भी श्रमणपना कहा गया तथा यहाँ भी कहा गया यह क्यों ? इसका समाधान करते हैं कि वहाँ तो सर्वपर का त्याग करना इस स्वरूप ही उत्सर्ग को मुख्यता से मोक्षमार्ग कहा गया। यहाँ साधुपने का व्याख्यान है कि साधुपना ही मोक्षमार्ग है इसको मुख्यता है, ऐसा विशेष है ।।२४४॥ इस तरह श्रमणपना अर्थात् मोक्षमार्ग को संकोच करने को मुख्यता से चौथे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुईं। अथ शुभोपयोगप्रज्ञापनम् । तत्र शुभोपयोगिनः श्रमणत्वेनान्वाचिनोति समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होति' समयम्हि । तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा ॥२४॥ श्रमणाः शुद्धोपयुक्ताः शुभोपयुवताश्च भवन्ति समये । तेष्वपि शुद्धोपयुक्ता अनास्रवाः सास्त्रवाः शेषाः ।।२४५॥ ये खलु श्रामण्यपरिणति प्रतिज्ञायापि जीवितकषायकणतया समस्तपरद्रव्यनिवृ(१) संति (ज० व०)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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