SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 615
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो ] [ ५८७ तिप्रवृतसुविशुद्धबु शिज्ञप्तिस्वभावात्मस्ववृत्तिरूपां शुद्धोपयोग भूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते । ते तदुपकण्ठनिविष्टाः कषाय कुण्ठीकृतशक्तःयो नितान्तमुत्कण्टुलमनसः श्रमणाः कि भन बेत्यत्राभिधीयते । "धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जवि सुद्धसंपओगजुदो । पाववि णिवाणसुहं सुहोयजुत्तो व सग्गसुह" इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुमोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवायः । ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयुः श्रमणाः किंतु तेषां शुद्धोपयोगिभिः । समं समकाष्ठत्वं न भवेत् यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्त समस्त कषायत्वादनास्रवा एव । इमे पुनरनवकीर्णकषायकणत्वात्सास्रया एवं अतएव च शुद्धोपयोगिभिः समममी न समुच्चीयन्ते केवलमन्याचीयन्त एव ॥ २४५ ॥ भूमिका – अब, शुभोपयोग का प्रज्ञापन करते हैं। उसमें ( प्रथम ), शुभोपयोगियों को भ्रमण रूप में गौणतया बतलाते हैं अन्वयार्थ – [ समये ] शास्त्र में ( ऐसा कहा है कि ), [ शुद्धोपयुक्ताः श्रमणाः ] शुद्धोपयोगी श्रमण हैं [ शुभोपयुक्ताः च भवन्ति ] शुभोपयोगी भी श्रमण होते हैं [ तेषु अपि ] उनमें भी [ शुद्धोपयुक्ताः अनास्रवाः ] शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, [ शेषाः सास्रवाः ] शेष सास्रव हैं, (अर्थात् - शुभोपयोगी आलबसहित हैं)। टोका—जो वास्तव में श्रामण्यपरिणति की प्रतिज्ञा करके भी कषाय-कण के जीवित 1 होने से समस्त परद्रव्य से निवृत्ति रूप से प्रवर्तमान जो सुविशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाय आत्मतत्व में परिणति रूप शुद्धोपयोग भूमिका उसमें आरोहण करने को असमर्थ हैं, वे ( शुभोपयोगी) जीव- जो कि शुद्धोपयोग को भूमिका के निकट निवास कर रहे हैं, और कषाय ने जिनको शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित मन वाले हैं, वे श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जा रहा है धम्मेण परिणप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो | पावदि णिग्वाणसुहं सुहोबजुत्तो व सासुहं ॥६६॥ I इस प्रकार कुन्दकुन्दाचार्य ने स्वयं ही निरूपण किया है, इसलिये शुभोपयोग का धर्म के साथ एकार्थसमवाय (अभिन्नता ) है । इसलिये शुभोपयोगी भी धर्म का सदभाव होने से, श्रमण हैं । किन्तु वे शुद्धोपयोगियों के साथ समान कोटि के नहीं हैं, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों को निरस्त करने वाले होने से निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो कषाय कण के विनष्ट न होने से साथ ही हैं। और ऐसा होने से ही शुद्धोपयोगियों के साथ इन्हें ( शुभोपयोगियों को ) एकत्रित नहीं किया (वर्णन किया) जाता, मात्र पीछे से ( गौण रूप में ही) लिया जाता है।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy