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________________ पवयणसारो ] [ ५८५ अन्वयार्थ-यदि यः श्रमणः] यदि जो श्रमण [अर्थेषु] पदार्थों में [न मुह्यति] मोह नहीं करता, [न हि रज्यति ] राग नहीं करता, [न एव द्वेषम् उपयाति] और न द्वेष को प्राप्त होता है [सः] तो वह [नियत] नियम से [विविधानि कर्माणि] विविध कर्मों को [क्षपति ] खपाता है । टीका-जो ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्र (विषय) को भाता है (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि में स्थित है) वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय नहीं करता, और उसका आश्रय नहीं करता वह ज्ञानात्मा (ज्ञानी) आत्मज्ञान से अम्रष्ट स्वयमेव ज्ञानी रहता हुआ मोह नहीं करता, राग नहीं करता, द्वेष नहीं करता, और ऐसा बर्तता हुआ (वह) मुक्त हो होता है, परन्तु बंधता नहीं है । इससे एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है ।।२४४॥ इस प्रकार सोलमार्गप्रज्ञापन समान था। तात्पर्यति अथ निजशुद्धात्मनि योऽसावेकाग्रस्तस्यैब मोक्षी भवतीत्यूपदिशति:-- ।। अछेतु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुययादि अर्थेषु बहिःपदार्थेषु यो न मुह्यति न रज्यति हि स्फुटं नैव द्वेषमुपयाति जदि यदि चेत् सो समणी स श्रमणः णियदं निश्चितं खवेदि दिविहाणि कम्माणि क्षपयति कर्माणि विविधानि इति । अथ विशेषः-यो सौ दष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपाद्यपध्यानत्यागेन निजस्वरूप भावयति तस्य चित्त बहिःपदार्थेष न गच्छति ततश्च बहिःपदार्थे चिन्ताभायान्निविकारचिच्चमत्कारमात्राच्च्यूतो न भवति । तदच्यत्रनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति । ततो मोक्षार्थिना निश्चलचित्तेन निजात्मनि भावना कर्नव्येति । इत्थं वीतरागचारित्रव्याख्यानं श्रुत्वा केचन वदन्ति सयोगिकेलिनामप्येकदेशेन चारित्रं, परिपूर्णचारित्र, पुनरयोगिचरमसमये भविष्यति तेन कारणनेदानीमस्माकं सम्यक्त्वभावनया भेदज्ञानभावनया च पूर्वते चारित्रं पश्चाद्भविष्यतीति नैवं वक्तव्यम् । अभेदनयेन ध्यानमेव चारित्रं तच्च ध्यानं केवलिनामुपनारेणोक्त चारित्रमप्युपचारेणेति । यत्पुनः समस्तरागादिविकल्पजाल रहित शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक वीतरागछमस्थचारियं तदेव कार्यकारीति । कस्मादिति चेत् ? तेनैव केवलज्ञान जातस्तस्माच्चारित्रे तात्पर्य कर्तव्यमिति भावार्थः । किंच उत्सर्गव्याख्यानकालेऽपि श्रामण्यं व्याख्यातमत्र पुनरपि किमर्थमिति परिहारमाह-तत्र सर्वपरित्यागलक्षण उत्सगं एवं मुख्यत्वेन च मोक्षमार्ग: अब तु श्रामण्यव्याख्यानमस्ति परं किन्तु श्रामण्यं मोक्षमार्गो भवतीति मुख्यत्वेन विशेषोऽस्ति ।।२४४।। एवं श्रामण्यापरनाममोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो अपने शुद्धात्मा में एकाग्र हैं उन्हीं के मोश होता है अन्वय सहित विशेयार्थ—(जदि जो) तथा जो कोई (अठेसु) अपने आत्मा को छोड़कर अन्य बाह्य पदार्थों में (ण मुज्झदि) मोह नहीं करता है, (ण हि रज्जवि) राग नहीं करता है (णेव दोसमुवयादि) और न द्वेष को प्राप्त होता है (सो समणो) वह साधु (णियदं निश्चय से (विविहाणि कम्माणि खवेदि) नाना प्रकार कर्मों का का क्षय करता है। जो
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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