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________________ ५८४ ] [ पवयणहारो तात्पर्यवृत्ति अथ यः स्वशुद्धात्मन्येकाग्रो न भवति तस्य मोक्षाभावं दर्शयति ; मुज्झदि वा रज्जदि वा वुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज्ज जबि मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि वा यदि चेत् ? किं कृत्वा ? द्रव्यमन्यदासाथ प्राप्य स कः ? समणो श्रमणस्तपोधनः । तदा काले अण्णाणी अज्ञानी भवति । अज्ञानी सन् बज्झदि कम्मेहि विविहेहि बध्यते कर्मभिर्विविधैरिति । तथाहि - यो निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानेनैकाग्रो भूत्वा स्वात्मानं न जानाति तस्य चित्तं वहिर्विषयेषु गच्छति । ततश्चिदानन्दैक निजस्वभावाच्च्युतो भवति । ततश्च रागद्वेषमोहैः परिणमति तत्परिणमन् बहुविधकर्मणा बध्यत इति । ततः कारणान्मोक्षाचिभिरेकाग्रत्वेन स्वस्वरूप भावनीयमित्यर्थः ॥ २४३ ॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं जो शुद्ध आत्मा में एकाग्र नहीं होता है उसके मोक्ष नहीं हो सकता है अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( जदि ) यदि (समणो ) कोई साधु (अच्णं दव्बं आसेज्ज) अपने से अन्य किसी द्रव्य को ग्रहण कर (मुज्झदि वा ) उसमें मोहित हो जाता है ( रज्जदि वा ) अथवा उसमें रागी होता है (दुस्सदि वा ) अथवा उसमें द्वेष करता है। ( अण्णाणी) तो वह साधु अज्ञानी है, इसलिये (विविहेहि कम्मे हि ) नाना प्रकार कर्मों से ( बसदि ) बंधता है। जो निविकार स्वसंवेदन ज्ञान से एकाग्र होकर अपने आत्मा को नहीं अनुभव करता है उसका चित्त बाहर के पदार्थों में जाता है, तब चिदानन्दमयी एक अपने आत्मा के निज स्वभाव से च्युत हो जाता है फिर रागद्वेष मोह भावों से परिणमन करता हुआ नाना प्रकार कर्मों को बांधता है। इस कारण मोक्षार्थी पुरुषों को चाहिये कि एकाग्रता के द्वारा अपने आत्मस्वरूप की भावना करे। यह तात्पर्य है ।। २४३ ॥ मोक्ष मार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति अर्थका अट्ठेसु जो ण मुज्झदि ण हि रज्जदि णेव दोसमुवयादि । समणो जदि सोणियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥ २४४॥ | अर्थेषु यो न मुह्यति न हि रज्यति नैत्र द्वेपमुपयाति । श्रमणो यदि स नियतं क्षपयति कर्माणि विविधानि || २४४॥ यस्तु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति स न ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदनासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्टः स्वयमेव ज्ञानीभूतस्तिष्ठन्न मुह्यति, न रज्यति, न द्वेष्टि तयाभूतः सन् मुध्यत एव न तु बध्यते । अत ऐकाग्र्यस्यैव मोक्षमार्गत्वं सिद्धय ेत् ॥ २४४ ॥ इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् ॥ भूमिका – अब, एकाग्रता मोक्षमार्ग है यह (आचार्य महाराज) निश्चित करते हुये ( मोक्षमार्ग - प्रज्ञापनका ) उपसंहार करते हैं-
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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